Book Title: Sambodhi 2006 Vol 30
Author(s): J B Shah, N M Kansara
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 156
________________ 150 जयन्त उपाध्याय SAMBODHI उन्होनें अपने ग्रन्थ 'श्रृंगार प्रकाश' में किया है । यह ग्रन्थ मतमतान्तरों के खण्डन-मण्डन का नीरस पिटारा भर नहीं है, अपितु इसमें चतुर्दिक साहित्यभाव की अन्तः सलिला भी प्रवाहित है जो इसे अन्य दार्शनिक ग्रन्थों से विशिष्ट बताती है । रचनाकार का पाण्डित्य इसमें कहीं भी बौद्धिक आतंक का पर्याय बनाकर नहीं उभरा है, अपितु जयन्त भट्ट के सरस साहित्यिक व्यक्तित्व के अनुरूप इस ग्रन्थ में सर्वत्र सरस विवेचन के दर्शन होते हैं । नवीं सदी तक भारत में लौकिक साहित्य के समानान्तर देशभाषा के साहित्य का भी विकास हो चुका था । प्रबन्धात्मक ग्रन्थ दोनों भाषाओं के शिल्पो से अंतःक्रिया कर एक परिपाटी ग्रहण कर चुके थे । 'न्यायमञ्जरी' में भी उस परिपाटी के दर्शन होते हैं यद्यपि इसे प्रबन्ध ग्रन्थ मानना अनुचित नहीं होगा । सर्गो की भाँति ही यह ग्रन्थ भी बारह आह्निकों में विभाजित है । इसमें भी ईश:वन्दना, गुरू अभ्यर्थना, रचनाकार के मन्तव्य का प्रतिपादन है। ग्रन्थ का पहला ही श्लोक पूर्ण रूप से मान्यता के अनुरूप न होकर भी इतर साहित्यकारों के समान शिववंदना करता है। चौथे श्लोक में अक्षपाद की महत्ता बताकर रचनाकार एक प्रकार से गुरू-अभ्यर्थना का संकेत करते हैं । चौदहवें श्लोक में रचना-उद्देश्य का कथन है । यद्यपि संपूर्ण रचना तार्किक विवेचन का प्रतिफलन मात्र है, परन्तु रचनाकार अपने घोषित उद्देश्य के अतिरिक्त कुछ अपने निष्कर्ष भी देता है । यह प्रयास संपूर्ण रचना में 'उत्तम पुरुष' में विवेचित है । अतः यह ग्रन्थ आत्म कथात्मक शैली में पर्यवसित होकर उत्कृष्ट साहित्य का रूप ग्रहण करते लगता है । पूरे ग्रन्थ में विषयानुकूल शान्तरस का परिपाक है, परन्तु प्रसंगानुकूल अन्य रस (विशेषतः श्रृंगाररस) भी आये है। यद्यपि लक्ष्य 'सामाग्रीकारणवाद' को पुष्ट करता है, परन्तु प्रतिवादि के आक्षेप को एवं लम्बे-लम्बे सामासिक पदों की व्यंजना परिलक्षित होती है ।१० रचना में रूपक के बाहुल्य के साथ-साथ जनसामान्य के जीवन के शब्दों दृष्टान्तो का भी प्रयोग हुआ है ।११ रचना की शैली में व्यासत्व की प्रधानता है जो प्रसंगानुकूल विविध रूप ग्रहण करती है । संपूर्ण रचना को 'चम्पू-काव्य' कहा जा सकता है । इस प्रकार 'न्यायमञ्जरी' अपनी साहित्यिक श्रेष्ठता के कारण भी लोकप्रिय है। आत्म-विज्ञापन-निषेध हमारे ऋषियों और मनीषियों की सहज प्रवृत्ति रही है । अपने दाय के मूल्यांकन के प्रति अपेक्षा वस्तुतः उनके उदार मना होने का परिचय देती है; परन्तु जिज्ञासा के लिए जहाँ यह एक संभावना प्रस्तुत करता है, वहीं अनेक चुनैतियाँ भी खड़ी करता है । यह बात न्यायमञ्जरीकार जयन्त भट्ट के लिए पूरी तरह सत्य है । ग्रन्थ-रचना को दिवस-यापन का व्यसन मानने वाले जयन्त भट्ट हमारे सामने जिस गोपन-पुरुष के रूप में आते है, उस आवरण को भेद कर उनके आलोक प्रकीर्ण व्यक्तित्व को समाने लाना एक कठिन कार्य है तथापि उपलब्ध साक्ष्यों (विशेष रूप से न्यायमञ्जरी) के आधार पर कहा जा सकता है कि जयन्त भट्ट हमारे सामने एक ऐसे दार्शनिक आचार्य के रूप में उभरकर आते है जिनकी मेधा चली है बुद्धि के साथ, पर हृदय वृत्ति ने थोड़ा सा श्रम-परिहार का उद्योग किया और संपूर्ण विवेचन सहजता से ग्राह्य होता चला गया । इसी हृदयवृत्ति ने उनके साहित्यिक व्यक्तित्व को भी उभारा । इसी तथ्य को जयन्त भट्ट पुत्र अभिनन्द ने भी स्वीकार किया है ।१२

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