________________
152
जयन्त उपाध्याय
SAMBODHI
उसका ही हो गया और इस आधार पर जयन्त भट्ट का नितान्त मौलिक विचारक कहा जा सकता है। एक साथ पौरोहित्य (जयन्त भट्ट दो मंदिरों के प्रभारी थे), राजधर्म (शंकरवर्मा का मंत्री होना)
और रचनाधर्म साधने वाले जयन्त भट्ट में सन्तुलनकारी अद्भुत मौलिकता थी । 'न्यायमञ्जरी' के प्रणयन काल की ऐकान्तिकता जहाँ उनकी 'बन्धन' कहना बताता है कि वे रचना-धर्म को अधिमान्यता देते हैं । मालवीय दुर्बलता रूप कहीं-कहीं सौम्यता का अतिक्रमण कर बैठते है५ यद्यपि ऐसे प्रसंग अत्यल्प है, जहाँ भाषा में अमर्यादापन, विरोधियों व्यंगात्मक प्रहार के लिए उन्हें प्रेरित होना पड़ा । ऐसे कथनों का निरूपण बहुत कुछ परम्परा में हुआ है और कुछ मानवीय दुर्बलता के कारण जिसे उनको मौलिक चिन्तन के नाम पर जयन्त भट्ट को इतनी छूट तो दी ही जा सकती है ।
जयन्त भट्ट की भाषा संयत है । शब्द चयन प्रसंगानुकूल है । पदो की समासिकता बाणभट्ट का स्मरण कराती है । सूत्रों की व्याख्या में उन्होने विविध शैलियों का प्रयोग किया है । सर्वप्रथम वे सूत्र उद्धृत करते हैं, यहाँ सूत्रात्मक शैली है । इसके बाद वे अपने आशय को प्रकट करते है, यहाँ शैली में विवरणात्मकता से अधिक व्यासत्व का प्राधान्य है । तत्पश्चात् प्रतिपक्षियों के आक्षेप प्रस्तुत करते हैं कहीं-कहीं यह क्रम बदल भी गया है । प्रतिपक्षियों के आक्षेप के परिहार में वे कभी तो आधार वाक्य का ही खण्डन करते है और कहीं-कहीं विपक्षी-तर्क-श्रृंखला की मध्यवर्ती किसी मान्यता का खण्डन कर पूरी श्रृंखला ध्वस्त कर देते हैं । कभी-कभी जयन्त भट्ट अपनी आधारभूत मान्यता का कोई विशेष अर्थ नहीं बताते और उसे पूर्वमान्यता के रूप में स्वीकार कर प्रतिपक्षी का खण्डन करते हैं । उदाहरण के लिए 'वर्ण-भेद' के सन्दर्भ में जयन्त भट्ट ने माना कि उच्चारण भेद में उदात्त-अनुदात्त-स्वरित के क्रम में भेद है जिससे वर्ण-भेद हैं वे क्रम-भेद का स्पष्टीकरण नहीं मानना ही उचित है । वे लौकिक साक्ष्य को अधिमान्यता देते हैं । वस्तुतः सम्पूर्ण 'न्यायमञ्जरी' में लौकिक साक्ष्यों को सार्वधिक वैधता दी भी है ।
यदि विषय प्रतिपादन पर बल न दिया जाये तो, 'न्यायमञ्जरी' की संरचना प्रबंधतंत्रीय लगती है । ईश्वर-गुरू अभ्यर्थना एवं लक्ष्य निरूपण का उल्लेख करके अपने साहित्यिक अभिरूचि का प्रमाण दिया है । अनुप्रास, रूपक, उपमा, अलंकारों का बाहुल्य, वर्ण-मैत्री का लालित्य, श्लोको के रूप में छन्दों का यथाशक्य निर्वहन, आत्मने पद का बाहुल्य उन्हें ललित और आत्माभियंजक निबंधकार के रूप में प्रतिष्ठित करता है तथापि जयन्त भट्ट ने यह भी ध्यान रखा कि साहित्यिक-मोह कहीं वर्ण्य-विषय के साथ अन्याय न कर दे । इस एकल ग्रन्थ अध्येता के रूप में उनका व्यक्तित्व बहुआयामी होकर उभरा है। बाद में जयन्त भट्ट अपने साहित्यिक लगाव को दबा न सके । यह प्रवृत्ति उनके नाटक 'आगमडम्बर' में पूर्ण रूप से प्रकट हुई । यद्यपि इस ग्रन्थ का वर्ण्य-विषयक दर्शन ही है, जिसे जयन्त भट्ट ने भी स्वीकार किया है, परन्तु यह कमी ही इस नाट्य-रचना को विशिष्ट बनाती है । 'आगमडम्बर' के पूर्व किसी रचना में दार्शनिक व्यक्तित्वों का वाचवी प्रयोग नहीं दिखायी देता है-यह बात उस युग में जितनी क्रांतिकारी थी उससे अधिक आज सर्जनात्मक है । जिस बात सूर्यकान्त निराला ने 'खुले गए छन्द के बन्ध' कह कर व्याख्यायित किया उसका प्राचीनतम