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Vol. XXX, 2006 जयन्त भट्ट : दर्शन की साहित्यिक भूमिका
151 जयन्त भट्ट ने वस्तुतः पूर्ववर्ती दार्शनिक परम्पराओं का गहन अध्ययन किया था । चार्वाक सांख्य, बौद्ध, जैन, वैशेषिक के साथ-साथ मीमांसा एवं अपने पूर्ववर्ती न्याय-आचार्यो का उल्लेख वस्तुतः उनके अध्ययनशील होने का ही संकेतक है । उनका अध्ययन अभ्रान्त था जिससे वे निरपेक्ष होकर सभी के मतो को यथातथ्य उद्धृत कर सके । यह पूर्वग्रह रहितता जहाँ एक ओर उनकी निष्पक्षता, सदाशयता को द्योतित करती है, वहीं दुसरी ओर इस तथ्य को भी रेखांकित करती है कि प्रतिपक्षियों की न्यनूताओं को प्रकट करने में उनकी मेधा सक्षम है और इसके लिए किसी वितण्डा, जल्प या मिथ्या कथन की कोई आवश्यकता नहीं । इस प्रकार जयन्त भट्ट ने एक स्वच्छ वादविवाद एवं चिन्तन परम्परा का मार्ग प्रशस्त किया । प्रतिपक्षियों के तर्को के खण्डन में उनकी स्पष्टवादिता वस्तुतः किसी अहंमन्यता का रूप ग्रहण नहीं करती, अपितु उनकी प्रतिबद्धता को ही उजागर करती है । अतः जब वे कहते हैं कि "प्रभाकर अपने कृतित्व का अमुक-अमुक अंश बौद्धों से बिना उनकी स्वीकृति के लिया है तो इस कथन को उपर्युक्त आशय के रूप में ही ग्रहण करना चाहिए । अपनी मातृभूमि के दर्शन से अलग जब एक बार उन्होनें न्याय मार्ग का अवलम्बन लिया तो आजीवन उसे ही निष्कंटक और संवृद्ध बनाते रहे । यह उनकी न्याय के प्रति अभ्रान्त निष्ठा का परिणाम था । अपने लक्ष्य में न्याय के प्रति उनके मन में कोई संशय नहीं था । उन्हें अपनी प्रक्रिया विकल्पक नहीं लगी । जब सभी दर्शन-मार्ग एक ही लक्ष्य (मोक्ष) के प्रतिपादक हैं तो जयन्त भट्ट की दृष्टि में उनमें न्यूनता खोजना वस्तुतः अपनी आस्था की बलि चढ़ाना है । अतः उनकी दृष्टि में प्रतिपक्षियों का प्रत्युत्तर एक प्रकार से न्यायमार्ग की शुचिता को स्थापित करना ही अधिक जान पड़ता है; और यह ऐतिहासिक तथ्य है कि तीसरी सदी में 'न्यायभाष्य' की रचना के बाद बौद्धों ने न्यायसूत्रों की आलोचना की । पाँचवी सदी में बौद्ध तार्किक वसुबन्धु तथा दिङ्गनाग ने 'न्याय-सूत्र' की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिह्न लगा दिया था । अतः न्यायदर्शन को पुनर्जीवित करने के लिए उद्योतकर (छठी सदी) ने बौद्ध आक्षेपों पर प्रहार किया, परन्तु यह प्रहार दीर्धकालीन न रह सका । अतः तीन सदी बाद जयन्त भट्ट के अवतरण ने इस अधूरे कार्य को पूरा किया । जयन्त भट्ट की निष्ठा का पता हमें तब चलता है जब हम देखते है कि उनके ही समकालीन वाचस्पति मिश्र अपनी ही न्यायमान्यताओं का खण्डन कर अद्धैत वेदान्त की ओर मुड गए, परन्तु जयन्त भट्टने मार्ग-परिवर्तन को धर्म-परिवर्तन के समान पाप समझा ।
जयन्त भट्ट हमेशा अपनी क्षमता, अपने प्रयास मूल्य को कम आंका जो वस्तुतः उनके अत्यधिक उदारमना और सहिष्णु होना सिद्ध करती है जब वे स्पष्टतः अपनी अक्षमता की घोषणा करते हुए कहते है कि हम नवीन बात कहने में कहाँ समर्थ है हम तो सर्वथा अमौलिक बात कह रहें हैं ।१४ यद्यपि 'सर्वथा मौलिक' न करने का दावा करने वाले जयन्त भट्ट ने बहुत कुछ मौलिक कहा है। 'सामग्रीकारणवाद' और 'संहत्यकारितावाद' का प्रतिपादन उनकी मौलिकता के ही प्रमाण है । 'अथर्ववेद' को वेदत्रयी के स्तर पर प्रतिष्ठित करने का उनका प्रयास स्तुत्य है । कोई भी सत्य किसी व्यक्ति या वर्ग की धरोहर नहीं होता, जिस किसी ने भी उसे पूर्ण निष्ठा से प्रतिपादित किया वह