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कौशल्या चौहान
SAMBODHI
यह दुःख बार-बार उत्पन्न होता रहता है । प्रिय-विषयों और तद्विषयक विचारों, विकल्पों से जब तृष्णा छूट जाती है तभी तृष्णा का निरोध होता है ।१ तृष्णा से सम्पूर्ण रूप से मुक्ति पाना अर्थात् तृष्णा का नाश हो जाना ही दुःख-निरोध आर्यसत्य है ।४२
भिक्षु नागसेन "मिलिन्द" को दुःख-निरोध के विषय में स्पष्ट करते हुये कहते हैं कि "महाराज ! ज्ञानी आर्यश्रावकजन इन्द्रियों और विषयों के उपभोग में नहीं लगे रहते, उसमें आनन्द नहीं लेते और उसी में डूबे नहीं रहते । इससे उनकी तृष्णा का निरोध हो जाता है । तृष्णा का निरोध हो जाने से उपादान का निरोध हो जाता है। उपादान के निरोध से भव का निरोध हो जाता है । भव के निरोध से जन्म लेना बन्द हो जाता है। पुनर्जन्म के बन्द होने से बूढ़ा होना, मरना, शोक, रोना-पीटना, दु:ख, बेचैनी और परेशानी आदि सभी दुःख रुक जाते हैं ।४३
____४. दुःखनिरोधगामिनी प्रतिपद् प्रतिपद् का अर्थ है मार्ग, यही चतुर्थ आर्यसत्य है जो दुःखनिरोध तक पहुंचाने वाला मार्ग है।४४ दुःख की शान्ति अर्थात् निर्वाण प्राप्ति की ओर ले जाने वाले मार्ग को दुःखनिरोधगामिनी प्रतिपद् कहते हैं ।४५ नागसेन ने इस मार्ग को जड़ी-बूटियों वाला मार्ग बतलाया है जिससे उन्होंने (बुद्ध ने) देवताओं और मनुष्यों की चिकित्सा की थी । नागसेन 'मिलिन्द' से कहते हैं कि "महाराज ! इन बूटियों से भगवान् विरेचन देकर मिथ्यादृष्टि, मिथ्यासङ्कल्प, मिथ्यावचन, मिथ्याकर्मान्त, मिथ्याजीविका, मिथ्याव्यायाम, मिथ्यास्मृति और मिथ्यासमाधि को हटा देते हैं ।४६ यह मार्ग प्रत्येक व्यक्ति के लिये खुला है । इस मार्ग को अष्टाङ्गिक मार्ग कहा जाता है । दर्शन की विशुद्धि अर्थात् सम्यक् दृष्टि के लिये यही एक मार्ग है, दूसरा नहीं । निर्वाणगामी मार्गों में अष्टाङ्गिक मार्ग श्रेष्ठ है ।४८ अष्टाङ्गिक मार्ग के आठ अङ्ग ये हैं - सम्यक् दृष्टि, २. सम्यक् सङ्कल्प, ३. सम्यक् वाक्, ४. सम्यक् कर्मान्त, ५. सम्यक् आजीव, ६. सम्यक् व्यायाम, ७. सम्यक् स्मृति, ८. सम्यक् समाधि ।४९
"मिलिन्द' के समक्ष नागसेन ने अष्टाङ्गिक मार्ग के प्रत्येक अङ्ग की चर्चा निम्नलिखित प्रकार से की है
___४.१ सम्यक् दृष्टि दु:ख, दुःखसमुदय, दु:खनिरोध और दुःखनिरोधगामिनी प्रतिपद् इन चार आर्यसत्यों का यथार्थ ज्ञान सम्यक् दृष्टि है ।५० धम्मपद में कहा गया है कि जो दोषयुक्त कार्य को दोषयुक्त जानकर तथा दोषरहित कार्य को दोषरहित जानकर यथार्थ धारण करते हैं वे प्राणी सम्यक् दृष्टि को धारण करके सद्गति को प्राप्त होते हैं ।५९ । - मिलिन्द' नागसेन से प्रश्न करते हैं कि - "भन्ते ! प्रज्ञा की क्या पहचान है ?" नागसेन स्पष्ट करते हैं कि "काटना" प्रज्ञा की पहचान है और “दिखा देना" भी एक दूसरी पहचान है ।५२ "मिलिन्द" पुनः प्रश्न करते हैं-"भन्ते ! 'दिखा देना' प्रज्ञा की पहचान कैसे है ?" "महाराज ! प्रज्ञा उत्पन्न होने से अविद्यारूपी अन्धेरा दूर हो जाता है और विद्यारूपी प्रकाश पैदा होता है, जिससे चारों आर्यसत्य साफसाफ दिखायी देते हैं ।५३ अतः नागसेन के अनुसार चार आर्यसत्यों का ज्ञान की सम्यक् दृष्टि है।