Book Title: Sambodhi 2006 Vol 30
Author(s): J B Shah, N M Kansara
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 155
________________ जयन्त भट्ट : दर्शन की साहित्यिक भूमिका जयन्त उपाध्याय 'न्यायमञ्जरी' जयन्त भट्ट की अप्रतिम कृति है जिसकी रचना नवीं सदी के उतरार्द्ध में हुई । जयन्त भट्ट इसे अक्षपाद के चुने हुए सूत्रों की व्याख्या मानते हैं । गंगाधर शास्त्री ने इसी आशय को 'गौतम सूत्र-तात्पर्य-विवृत्ति' कहकर प्रकट किया है। आज जिस रूप में यह ग्रन्थ प्राप्त है, अपने उस कलेवर में यह बारह आह्निकों में विभक्त है। प्रथम छ: आह्निक प्रथम खण्ड में और शेष छ: आह्निक द्वितीय खण्ड में है। इसके विस्तार में न्यायशास्त्र में वर्णित सोलह पदार्थो का विवेचन है । इसमें पदार्थ विवेचन अधिमानी स्तर पर हुआ है । मुख्य रूप से प्रथम छ: आह्निकों में जहाँ 'प्रमाण' का ही विवेचन है उसमें से तृतीय, चतुर्थ, पंचम एवं षष्ठम् आह्निकों में शब्द सम्बन्धी अवधारणाओं का विवेचन हुआ है अर्थात् पूरे ग्रन्थ का तिहाई भाग परवर्ती शब्द प्रमाण के लिए समर्पित है। परवर्ती छ: आह्निकों में शेष पन्द्रह पदार्थो का विवेचन है । 'न्यायमञ्जरी' जयन्त भट्ट की दार्शनिक प्रतिबद्धता का प्रमाण है । न्यायदर्शन के प्रति समर्पित जयन्त भट्ट ने परम्परागत न्याय-मान्यताओं (विशेष रूप से 'न्यायभाष्य' और 'वार्तिक' के विरोध में) के विरुद्ध उठाये गये बौद्धों – विशेष रूप से दिङ्गनाग सम्प्रदाय और मीमांसकों के आक्षेपों को निरस्त कर न्याय दर्शन सम्मत मान्यताओं को पुर्नस्थापित किया है । ध्यातव्य है कि ग्रन्थ में अधिकांश दर्शनों की मान्यताओं को मूल रूप में प्रस्तुत किया गया है जिससे यह ग्रन्थ 'सर्वदर्शन मान्यता' की प्रमाणिक प्रस्तुति का सफल मंच बन गया है जिसकी उपयोगिता कोई भी स्वीकार करेगा । यद्यपि ग्रन्थ न्याय मान्यताओं का परिक्षण करता है, परन्तु यह रक्षा हठधर्मिता या साम्प्रदायिक स्तर पर नहीं हुई है । प्रत्येक मान्यता के ग्रहण के लिए एक बौद्धिक तर्क श्रृंखला दी गई है। अत: रचना ने सहज तर्क के अनेक क्षितिज उद्घाटित किये हैं । सूत्रों की शास्त्रीय व्याख्या पर रचना ने निजता का आवरण चढ़ाकर बहुत कुछ अपना बना लिया है और कई मान्ताएं 'न्यायमञ्जरी' की निजी मान्यताएं बनकर उभरी हैं; जैसे-सामग्रीकारणवाद और संहत्यकारितावाद । ___परवर्ती काल में नव्यन्याय की जो परम्परा चली, उसके कई प्रस्थान बिन्दु 'न्यायमञ्जरी' को अपने विवेचन का आधार बनाते हैं । अन्य दार्शनिक सम्प्रदाय भी 'न्यायमञ्जरी' के उल्लेख के बिना अपने प्रतिपादन को अपूर्ण पाते है-जैसे 'सामग्रीकरणवाद' का अनुकरण 'न्याय-भाष्य' के व्याख्याकार विश्वरूप ने किया है । इसी प्रकार 'संहत्यकारितावाद' का प्रभाव भोज पर पड़ा जिसका विवेचन

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