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नैयायिक ज्ञान का साधन प्रत्यक्ष प्रमाण
हेमलता श्रीवास्तव
'प्रत्यक्ष' शब्द को एक व्यापक अर्थ में ग्रहण किया जाता है । इसका प्रयोग प्रमाण और प्रमा दोनों ही अर्थों में होता है । यह यथार्थ ज्ञान का एक साधन (प्रमाण) भी कहा जाता और साध्य (प्रमा) भी । ऐसी बात अन्य प्रमाणों के सन्दर्भ में नहीं पायी जाती । प्रत्यक्ष अन्य सभी प्रमाणों का मूल आधार है क्योंकि यह सभी प्रमाणों के पहले लगा रहता है ।
पाश्चात्य तर्कशास्त्री जे. एस. मिल का कहना है कि " प्रत्यक्ष द्वारा प्राप्त ज्ञान ही वह मौलिक आधार है जिस पर अन्य सभी ज्ञान अवलम्बित हैं ।"२ परन्तु भारतीय दर्शन को समझने वाले चिन्तकों ने प्रत्यक्ष प्रमाण को द्वितीय स्तर का माना है, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार द्वितीय स्तर की नागरिकता को माना गया है । हम यहाँ विवेचनात्मक ढंग से प्रत्यक्ष प्रमाण के उस पक्ष पर अपना ध्यान आकर्षित करेंगे जिस पर विद्वानों ने अपेक्षाकृत कम ध्यान दिया है ।
सर्वप्रथम चार्वाक दर्शन प्रत्यक्ष को एक महत्त्वपूर्ण और सशक्त भूमिका में प्रस्तुत करता है । उनके अनुसार यथार्थ ज्ञान का एक ही प्रामाणिक साधन है । चार्वाक दर्शन के अनुसार प्रत्यक्ष ही एकमात्र प्रमाण है । चार्वाक प्रत्यक्ष के अतिरिक्त अन्य प्रमाणों की वैधता को स्वीकार नहीं करता है । प्रत्यक्ष को किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। वह सभी प्रमाणों की अपेक्षा अधिक स्पष्ट, तात्कालिक और प्रामाणिक है । शंकराचार्य ने भी स्वीकार किया है कि प्रत्यक्ष सम्भव रहने पर अनुमानादि की कोई प्रवृत्ति नहीं रह जाती । "प्रत्यक्ष" उस ज्ञान को कहते हैं जो इन्द्रिय और अर्थ के सन्निकर्ष से उत्पन्न होता है । इसका प्रमाण भी प्रत्यक्ष है । प्रत्यक्ष को एकमात्र प्रमाण मानने का कारण इस प्रमाण में प्राप्त अभ्रान्तता और निश्चयात्मकता है जो अनुमानादि प्रमाणों में सम्भव नही है । किन्तु चार्वाक द्वारा प्रत्यक्ष को ज्ञान का एकमात्र स्त्रोत मानने के कारण उसके विरुद्ध आलोचना का एक अनवरत क्रम आरम्भ हो गया । किसी ने भी यह जानने की चेष्टा नहीं की कि प्रत्यक्ष के अन्दर ज्ञान का ऐसा पक्ष भी है जो हमें अतीन्द्रिय ज्ञान की झलक भी देता है । वह नितान्त एन्द्रिक होते हुए भी एन्द्रिकता से परे के ज्ञान की ओर संकेत भी दे सकता है । चार्वाक दर्शन यह भूल गया कि प्रत्यक्ष कितना भी प्रामाणिक क्यों न वह भी त्रुटिपूर्ण हो सकता है और वही एकमात्र सम्पूर्ण ज्ञान नहीं है ।
चार्वाक के बाद जैन प्रत्यक्ष को अपरोक्ष ज्ञान के रूप में स्वीकार करके उसके सूक्ष्म और महत्त्वपूर्ण पक्ष की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं । जैन दर्शन के अनुसार ज्ञान दो प्रकार का है,