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जयपाल विद्यालंकार
SAMBODHI
समन्वित रूप ही शेष रहता है और यही सत्य है । यही बात पुनः आदित्य, चन्द्रमा और विद्युत् के उदाहरणों से समझाई है।
श्रुति यह प्रतिपादित करती है कि यह समस्त जगत् त्रिवृत्कृत है। जिस प्रकार अग्नि में रोहित, शुक्ल तथा कृष्ण यह तीन रूप ही सत् हैं अग्नि (शब्द एवं बुद्धि) केवल शाब्दिक व्यवहार है उसी प्रकार जगत् में भी यह तीन रूप ही सत् हैं इनके अतिरिक्त जो है वह वाचारंभणनामधेय मात्र है । अन्न, जल का कार्य होने से स्वयं वाचारंभणमात्र है जल ही सत् है । जल भी तेज का कार्य होने से वाचारंभणमात्र है तेज ही सत् है। यह तेज भी सत् का कार्य होने से स्वयं तो वाचारंभणमात्र ही है, वह सत् ही वस्तुतः सत्य है । इस सत् को जान लेने पर सब जाना जाता है।
___ इस प्रसंग में केवल तेज के उदाहरण से और पञ्चीकरण के बजाए त्रिवृत्करण के माध्यम से सब समझाया गया है । शंकराचार्य ने भाष्य में इसका समाधान यह दिया है कि तेज, जल और अन्न तीनों के रूपवान् एवं मूर्त द्रव्य होने के कारण इस उदाहरण में स्पष्टता है । रूपवान् द्रव्य में सब सहजता से दृष्टिगत होता है तथा शब्दस्पर्श गुण वाले आकाश और वायु का इसी में अन्तर्भाव हो जाता है - रूपवद्रव्ये सर्वस्य दर्शनात् । तेजसि तावद्रूपवति शब्दस्पर्शयोरप्युपलम्भात् वाय्वन्तरिक्षयोस्तत्र स्पर्शशब्दगुणवतः सद्भावोऽनुमीयते । इसी प्रकार रूपवान् जल और अन्न में रस और गन्ध का अन्तर्भाव हो जाता है । इस प्रकार तेज, जल और अन्न इन तीन मूर्त रूपवान् द्रव्यों का त्रिवृत्करण प्रदर्शित करने से सत् के समस्त कार्य का प्रदर्शन हो जाता है । पञ्चीकरण की पुष्टि में इस त्रिवृत्करण प्रदर्शित करने से सत् के समस्त कार्य का प्रदर्शन हो जाता है । पञ्चीकरण की पुष्टि में इस त्रिवृत्करण को उपलक्षण समझाना चाहिये । जिस प्रकार श्रुति ने समझाया कि तेज में यह त्रिवृतत्व ही सत्य है शेष सब वाचारम्भणमात्र है उसी प्रकार इस समस्त जगत् में भी पञ्चीकृत महाभूत ही सत्य हैं शेष सब वाचारम्भणनामधेय मात्र है।
वेदान्त दर्शन के अनुसार सम्भवतः पञ्चीकरण की प्रक्रिया अधोलिखित प्रकार से होती है - पञ्चीकृत महाभूत स्थूल हैं। इन महाभूतों की यह अभिव्यक्तावस्था है। इस अवस्था में शब्दस्पर्शरूपरसगन्ध अभिव्यंजित होकर अनुभव एवं उपभोग के योग्य हो जाते हैं । स्थूलीकरण अथवा अभिव्यंजन की इस प्रक्रिया को ही पञ्चीकरण कहा गया है । यह अधोलिखित प्रकार से होती है -
अपञ्चीकृत महाभूत परस्पर मिलकर ही पञ्चीकृत, स्थूल या अभिव्यंजित होते हैं । आकाश में शब्द की अभिव्यक्ति के लिये स्पर्शरूपरसगन्ध की सहायता की अपेक्षा होती है स्पर्शरूपरसगन्ध शब्द को अभिव्यंजित करके भी स्वयं अनभिव्यक्तावस्था में ही वहाँ उपस्थित रहते हैं । इनकी अनभिव्यक्ति का कारण अपने अपने आश्रय द्रव्य वायु आदि में अभी इनकी स्वयं की अनभिव्यक्ति है । आकाश में केवल शब्द ही अभिव्यंजित होता है। शेष स्पर्शादि आकाश में अनभिव्यक्त अत एव गौण अवस्था में होते हैं। शब्द की प्रधानता के कारण ही इस का नाम आकाश होता है ।
पञ्चीकृत वायु में इसी प्रकार स्पर्श की अभिव्यंजना में शब्दरूपरसगन्ध निमित्त बनते हैं । यहाँ आकाश की अपेक्षा एक अन्तर और होता है । क्योंकि आकाश में शब्द अभिव्यंजित हो चुका है अतः