Book Title: Sambodhi 2006 Vol 30
Author(s): J B Shah, N M Kansara
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 139
________________ Vol. Xxx, 2006 पञ्चीकरणम् : एक विश्लेषण 133 वायु में वह अभिव्यंजित अवस्था में ही सम्मिलित होता है। परन्तु वायु के स्वकीय गुण स्पर्श से अभिभूत होकर ही इसकी वहाँ स्थिति होती है । इस प्रकार वायु में स्पर्श प्रधान रूप से अभिव्यक्त, शब्द गौण भाव से अभिव्यक्त तथा रूपरसगन्ध अनभिव्यक्त अवस्था में पञ्चीकृत होते हैं । इसी प्रकार तेज में शब्दस्पर्शरसगन्ध की सहायता से रूप गुण प्रधान होकर अभिव्यक्त होता है। पहले से अभिव्यंजित शब्दस्पर्श रूप के साथ अभिव्यक्त अवस्था में परन्तु गौण होकर उपस्थित रहते हैं। रस और गन्ध अनभिव्यक्त अवस्था में रहते हैं । इस अवस्था में न ये उपयोगी होते हैं और न अनुभव किये जा ते हैं। वस्ततः इन पञ्जीकत महाभतों में स्वकीय गण के अतिरिक्त अन्य गणों की उपस्थिति संसर्गजन्य होती है । इसी कारण इन में वैविध्य भी होता है । जैसे वायु का स्वकीय स्पर्श न शीत होता है और न उष्ण परन्तु पृथिवी या जल में यह संसर्ग के कारण शीत या उष्ण प्रकार का हो सकता है। तेज में रस और गन्ध के अभाव का तात्पर्य यही है कि वहाँ इनकी उपस्थिति को अनुभव कराने के लिये किसी प्रकार के संसर्ग का अभाव होता है । जल में शब्दस्पर्शरूपगन्ध की सहायता से रस की मुख्य रूप से अभिव्यक्ति होती है। शब्दस्पर्शरूप गौण होकर अभिव्यक्त होते हैं । गन्ध क्योंकि अभी तक अभिव्यक्त नहीं हुआ है अतः वह यहाँ जल में अनभिव्यक्त होकर ही रहता है । रस के प्राधान्य के कारण इस महाभूत का नाम जल होता है । पृथिवी में शब्दस्पर्शरूपरस की सहायता से गन्ध अभिव्यक्त होता है । क्योंकि शब्दस्पर्शरूपरस सभी गुण अभिव्यक्तावस्था में आ चुके हैं अतः पृथिवी में यह सभी अभिव्यक्त होते हैं परन्तु प्रभुता गन्ध की ही रहती है। इसी कारण इसका नाम पृथिवी होता है । __व्यवहार में समस्त जगत् यह पञ्चीकृत महाभूत ही हैं। प्रत्येक महाभूत में अपना एक गुण प्रमुख तथा अन्य चार गुण गौण अथवा अनभिव्यक्त होकर रहते हैं । आकाशानिलानलसलिलावनि में क्रमश: अभिव्यक्त हुए गुण उत्तरोत्तर महाभूत में अभिव्यक्तावस्था में ही प्रकट होते हैं परन्तु यह गुण महाभूत के स्वकीय गुण से अभिभूत होकर ही वहाँ उपस्थित होते हैं । अनभिव्यक्त गुणों की स्थिति भी महाभूतों में होती है परन्तु अनभिव्यंजित होने के कारण यह अनुभव या उपभोग के योग्य नहीं होते । महाभूतों में उत्तरोत्तर एक, दो, तीन, चार और पाँच गुणों के अभिव्यंजित अवस्था में होने के कारण ही इन्हें क्रमश: एक, दो, तीन, चार और पाँच गुणों वाला कहा जाता है । वेदान्त के अनुसार संभवतः यही पञ्चीकरण की प्रक्रिया है । इस की पुष्टि व्यावहारिक जगत् में श्रुति के त्रिवृत्करण से होती है । सांख्य दर्शन में भी पञ्चतन्मात्राओं से पंचमहाभूत की उत्पत्ति बताई गई है। परन्तु वहाँ यह पञ्चीकरण की उद्भावना नहीं है । वस्तुत: वहाँ व्यक्त अत एव प्रत्यक्ष पञ्चमहाभूतों के कारण के रूप में अव्यक्त पञ्चतन्मात्र की परिकल्पना है । तथाहि तन्मात्राण्यविशेषास्तेभ्यो भूतानि पञ्च पञ्चभ्यः । एते स्मृता विशेषाः शान्ता घोराश्च मूढाश्च । सा० तत्त्वकौमुदी का० ३८ । शब्दादि तन्मात्र सूक्ष्म हैं । इनमें विद्यमान् सुखदुःखमोह (सत्वरजस्तमस्) विशेष अर्थात् उपभोग के योग्य नहीं हैं । तन्मात्र में प्रयुक्त मात्र पद का यही अर्थ है। शब्दादि तन्मात्राणि सूक्ष्माणि । न चैतेषां शान्तत्वादिरस्ति उपभोगयोग्यो विशेष इति

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