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जयपाल विद्यालंकार
SAMBODHI
इस वस्तुस्थिति के रहते पञ्चीकरण को यदि मानना ही हो तो वेदान्त को प्रत्येक महाभूत में कुछ गुणों को अनभिव्यंजित मानना ही पड़ेगा । केवल पृथिवी में पाँचों गुण अभिव्यंजित होंगे शेष आकाशादि में क्रमशः चार. तीन. दो तथा एक गण अनभिव्यंजित ही होगा । स्थलभूतों में अनभिव्यंजित गणों के सहारे पञ्चीकरण का प्रतिपादन तर्क संगत नहीं है । त्रिवृत्करण श्रुति को उपलक्षण मानकर इसका विस्तार करना हो तो वह भी तेज से आपः तथा अन्न तक ही हो सकेगा । आकाश और वायु को वहाँ भी स्पष्ट रूप से छोड़ दिया गया है। इसके अतिरिक्त जिस प्रकार त्रिवृत्करण में तेज में रूप की विविधता दर्शाई गई है उसी प्रकार आप : में रस की तथा पृथिवी में गन्ध की विविधता ही मान्य होगी। इसका विस्तार पञ्चीकरण तक करना बहुत समीचीन प्रतीत नहीं होता ।
___ सांख्य दर्शन में अहंकार से तन्मात्र तथा इन तन्मात्रों से महाभूतों की उत्पत्ति (अभिव्यक्ति) मानी है। दोनों में अन्तर अविशेष तथा विशेष का है। शब्दादि तन्मात्र जब सूक्ष्म होते हैं तब उपभोग के योग्य नहीं होते । स्थूल होने पर इनमें विशिष्टता आजाती है और ये उपभोग के योग्य होकर सुख दुःख मोह के कारण बनते हैं। यह विशेष सामान्य (निर्विशेष) के बिना हो नहीं सकता (सामान्यं विशिष्टात् नातिरिच्यते) अतः व्यक्त अत एव प्रत्यक्ष पञ्चमहाभूतों के कारण के रूप में अव्यक्त पञ्चतन्मात्राओं को मानने की आवश्यकता सांख्यों को हुई । अन्य किसी दर्शन में या श्रुति में तन्मात्राओं को मानने की आवश्यकता नहीं है । वेदान्त का काम भी इन तन्मात्राओं को माने बिना चल सकता था । वेदान्त में इन तन्मात्राओं का मानना भी अनावश्यक प्रतीत होता है न तो श्रुति से इसका अनुमोदन होता है और न तर्क से ।