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Vol. xxx, 2006
पञ्चीकरणम् : एक विश्लेषण
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यह समस्त जगत् इन पाँच महाभूतों का ही प्रपंच है । नित्यशुद्धबुद्ध ब्रह्म और जगत् के मध्य जिस प्रकार माया उपस्थित है उसी प्रकार नाम रूप से व्याकृत् जगत् की पूर्वावस्था यह पञ्चीकरण की अवस्था है । इसी दृष्टि से इस पञ्चीकरण सिद्धान्त की स्थिति को समझा जा सकता है। सुरेश्वरचार्य और बाद में पंचदशीकार श्रीमद्विद्यारण्य मुनि, जिन्हें सायण का भाई माधव माना जाता है (ई० १३५०) तथा वेदान्तसार के रचयिता आचार्य सदानन्द (सोलहवीं शती, उत्तरार्ध) ने पंचीकरण को जिस प्रकार प्रस्तुत किया है वह तर्क संगत प्रतीत नहीं होता ।
इसी प्रसंग में पञ्चीकरण को श्रुत्यनुमोदित बताते हुए वेदान्तसार में कहा गया - अस्याप्रामाण्यं नाशंकनीयं, त्रिवृत्करणश्रुतेः पञ्चीकरणस्याप्युपलक्षणत्वात् । छांदोग्य उपनिषद् के छठे अध्याय के तृतीय खण्ड का यह प्रसंग है - तासां त्रिवृतं त्रिवृतमेकैकां करवाणीति सेयं देवतेमास्तिस्रो देवता अनेनैव जीवनात्मनानुप्रविश्य नामरूपे व्याकरोत् ॥३॥ तासां त्रिवृतं त्रिवृतमेकैकामकरोद्यथा तु खलु सोम्येमातिस्त्रो देवतास्त्रिवृत् त्रिवृदेकैका भवति तन्मे विजानीहीति ।४। वेदान्तसार में इसी का सहारा लिया गया - पृथिव्यप्तेजसा त्रयाणां भूतानां मध्ये एकैकं भूतं द्विधा विभज्य तत्राप्येकं भागं द्विधा विभज्य स्वांशं परित्यज्येतरयोर्योजनीयमिदं तावत् त्रिवृत्करणम् । वे. सार टीका । उद्धृत उपनिषद् वाक्य का प्रसंग यों है - आरुणि-पुत्र श्वेतकेतु बारह वर्ष तक गुरुकुल से अध्ययन करके घर लोटै तो पिता ने पूछा है सौम्य ! क्या तुम ने उस तत्त्व को जान लिया है जिस एक के जान लेने से सब जाना जाता है । श्वेतकेतु ने कहा नहीं । उसने पिता से कहा आप ही मुझे बतायें वह आदेश (परब्रह्म विषयक उपदेश) क्या है। पिता ने कहा हे सौम्य ! पहले एकाकी एक सत् ही था, सत् के अतिरिक्त दूसरा कुछ नहीं था। उस सत् ने चाहा (ईक्षण किया) मैं बहुत हो जाऊँ, मैं बहुत होकर उत्पन्न होऊँ । उसने तेज उत्पन्न किया। उस तेज ने चाहा मैं बहत हो जाऊँ, मैं बहुत होकर उत्पन्न होऊँ । उसने जल उत्पन्न किया । इस जल ने चाहा मैं बहुत हो जाऊँ, मैं बहुत होकर उत्पन्न होऊँ । उसने अन्न (पृथिवी) को उत्पन्न किया । उस देवता (सत्) ने चाहा मैं इन तीन (तेज, अप् और अन्न) में जीवात्म रूप से प्रविष्ट होकर नाम तथा रूप का व्यक्तिकरण करूँ (बहुत होना रूप प्रयोजन अभी भी समाप्त नहीं हुआ है) यही सोचकर उस सत् ने तेज, आप : और अन्न इन तीन में जीवात्म रूप से प्रविष्ट होकर नाम तथा रूप की अभिव्यक्ति के लिये इन तीनों देवतओं में से प्रत्येक को त्रिवृत् किया । इस त्रिवृत्करण में एक की प्रधानता तथा अन्य दो का गौण भाव होता है। इसी कारण त्रिवृत् होने पर भी इनका पृथक् पृथक् नाम तेज, जल, अन्न रहता है । यह त्रिवृत्करण किस प्रकार होता है यह आगे उदाहरण से यों समझाया गया है - अग्नि में जो लोहित रूप है वह अग्नि का, जो शुक्ल रूप है वह जल का और जो कृष्ण रूप है वह अन्न (पृथिवी) का है । त्रिवृत् होने पर अग्नि का जो अग्नित्व था - अग्नि यह बुद्धि तथा अग्नि यह शब्द था, जो केवल शाब्दिक और नाम रूप था, समाप्त हो जाता है। अब बस त्रित्व हुए तीन रूपों का