Book Title: Sambodhi 2006 Vol 30
Author(s): J B Shah, N M Kansara
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 132
________________ पञ्चीकरणम् : एक विश्लेषण जयपाल विद्यालंकार पञ्चीकरणम् शंकराचार्य की एक अति लघु किन्तु महत्वपूर्ण रचना है । इस पर शंकराचार्य के समकालीन शिष्य श्री सुरेश्वराचार्य (प्रसिद्ध मीमांसक मण्डनमिश्र ने शंकराचार्य से शास्त्रार्थ में पराजित होकर अद्वैत सिद्धान्त का अनुयायी होकर यह नाम धारण किया था) के सारगर्भित वार्तिक हैं । सुरेश्वराचार्य ने चौंसठ अनुष्टुप् पद्यों में शंकराचार्य की इस लघु रचना की व्याख्या में प्रणव (ओ३म्) की अद्वैत वेदान्त के अनुसार व्याख्या की है । सुरेश्वराचार्य के इस लघु व्याख्या ग्रन्थ का नाम पञ्चीकरण-वार्तिकम् है। परन्तु इसकी विषयवस्तु को ध्यान में रखकर श्री महादेव शास्त्री ने अड्यार संस्करण में इसे प्रणववार्तिकम् शीर्षक देना ही अधिक उचित समझा है। यद्यपि इसके लिये शास्त्री जी ने कोई प्रमाण नहीं दिया है। प्रस्तुत विवेचन का सम्बन्ध क्योंकि पञ्चीकरण से है अतः हमें आचार्य तथा वार्तिककार प्रदत्त शीर्षक ही अभिप्रेत है। ओ३म् । पञ्चीकृतपञ्चमहाभूतानि तत् कार्यं च सर्वं विराडित्युच्यते । एतत्स्थूलशरीरमात्मनः .....। यह मूलपाठ है । अर्थ स्पष्ट है - पञ्चीकृत पंचमहाभूत हैं और इनके सकल कार्यजात को विराट् कहा जाता है । यह आत्मा का स्थूल शरीर है । अपञ्चीकृतपञ्चमहाभूतानि पञ्चतन्मात्राणि, तत् कार्यं च पञ्चप्राणाः, दशेन्द्रियाणि, मनोबुद्धिश्चेति सप्तदशकं लिंगम् भौतिकं हिरण्यगर्भमित्युच्यते । एतत्सूक्ष्मशरीरमात्मनः.....। अपञ्चीकृत महाभूत पञ्चतन्मात्र हैं । भौतिक सूक्ष्मशरीर (Material subtle body) इनका कार्य है तथा पाँच प्राण, दस इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि यह सत्रह इस सूक्ष्मशरीर के अंग हैं। पञ्चतन्मात्र तथा इनका कार्य (सूक्ष्मशरीर) इनका सम्मिलित नाम हिरण्यगर्भ है। यह आत्मा का सूक्ष्मशरीर आकाशानिलानलसलिलावनि ये पञ्चीकृत होने पर पंचमहाभूत तथा अपञ्चीकृत अवस्था में तन्मात्र कहे गये हैं । तन्मात्र अन्वर्थक संज्ञा है। सांख्य शास्त्रानुसार (वेदान्त ने तन्मात्र शब्द संभवतः इसी शास्त्र से लिया है) अभिप्राय यह है कि इस तन्मात्र अवस्था में शब्दादि अभिव्यक्त नहीं हैं । आकाश या शब्दादि की यह वह सक्ष्म अवस्था है जहाँ उसका आकाशत्व या शब्दत्व अपने स्वरूप को त्याग देता है। इस अवस्था में वह केवल एक पदार्थ मात्र होता है इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं होता । यही शब्द अथवा आकाशादि का सूक्ष्मत्व है। इसी कारण इन्हें तन्मात्र कहा गया है। वस्तुतः इस सूक्ष्मावस्था (तन्मात्रावस्था) में तो इनकी शब्द या आकाशादि संज्ञा भी नहीं है । बाद में स्थूलावस्था में होने वाले आकाशादि नाम

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