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कानून व्यवस्था के संरक्षक वैदिक वरुण देवता
शशि कश्यप
जीवन के सर्वाङ्गीण विकास के लिए भारतीय धर्मवेत्ताओं ने चार पुरूषार्थों की व्यवस्था की है - धर्म, अर्थ, काम, व मोक्ष । इन चारों पुरूषार्थों में धर्म को प्रमुखता दी गयी है क्योंकि वह शेष तीनों पुरूषार्थों में अनुस्यूत है । मोक्ष प्राप्ति के लिए अर्थ अनर्थकारी न हो, कामसेवन चारित्रिक अध:पतन का कारण न बने इसलिए इनके नियन्त्रण और सम्यक् परिपालन के लिए धर्म की व्यवस्था की है । धर्म एक व्यवस्था है, एक कानून है जिस कानून के अनुसार प्राप्त धन ही वास्तव में अर्थ है । जिस प्रकार अधर्म, भ्रष्टाचार, पापयुक्त नीति व छल-कपट (अन्याय) से प्राप्त धन अनर्थकारी होता है उसी प्रकार अनियन्त्रित कामसेवन कानून (धर्म) द्वारा मान्य नहीं होता है। अत: धर्मरहित अर्थ व काम का त्याग करना चाहिए -
"परित्यजेदर्थकामौ यौ स्यातां धर्मवर्जितौ ।
धर्मं चाप्यसुखोदकं लोकविक्रुष्टमेव च ।" मनुस्मृति, ४/१७६. 'धर्म' शब्द का प्रयोग ऋग्वेद के अनुसार स्वभाव, विधि, निश्चित-नियम अथवा यज्ञानुष्ठान अर्थ में ग्रहण किया जाय अथवा मीमांसकों के अनुसार 'चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः' को माना जाय या फिर वैशेषिक के 'अभ्युदय व निःश्रेयस' के हेतु को धर्म कहा जाय अथवा धर्मशास्त्रों में मान्य धर्म के सामान्य व विशेष लक्षणों को माना जाय, सबका मूल एक ही है। सभी का मुख्य सूत्र है 'स्व-स्वनिर्धारित नियमों (धर्मो) का पालन करना व कर्त्तव्य कर्मों को करना । जिनका पालन न करने पर दण्ड का भागी बनना पड़ता है।
ऋग्वेद के पंचम मंडल में निश्चितनियम (व्यवस्था) अर्थ में 'धर्म' शब्द का प्रयोग मिलता है। वहाँ मित्र व वरुणदेव धर्मपूर्वक देव के विधान से अपने-अपने नियमों की रक्षा करते हुए प्रतीत होते
'धर्मणा मित्रावरुणा विपश्चिता व्रता रक्षेथे असुरस्य मायया ।' ऋग्वेद, ५.६३.७ ।
ऋग्वैदिक नियम 'ऋत' व 'सत्य'रूपी दैवी व्यवस्था थी जिस व्यवस्था (कानून, नियम) में बंधे हुए सभी देवगण तारागण, चन्द्रमा आदि सम्पूर्ण प्रकृति, अपने-अपने कार्यों में लगी रहती है।