Book Title: Sambodhi 2004 Vol 27
Author(s): J B Shah, N M Kansara
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 100
________________ 94 वसन्तकुमार भट्ट SAMBODHI तो यह अनृत को ही, दुनिया को - विशेष रूप मे अमरिका को प्रिय लगे इस तरह से बोला जा रहा है । ऐसी परिस्थिति में भगवान् मनु स्पष्ट रूप से कहते है कि - अनृतं च न प्रियं ब्रूयात् । जो गलत बात है, जो सरासर जूठ है उसको तो तनिक मृदुता से, या प्रीतिकर रूप से भी नहीं बोलना चाहिए, बल्कि कटु से कटु शब्दों में ऐसे अनृत को उद्घाटित कर देना चाहिए । यही सनातन धर्म हो सकता है । प्रथम एवं द्वितीय चरण में 'प्रियम्' एवं 'अप्रियम्' शब्दों को क्रियाविशेषण के रूप में लेने का प्रस्ताव रखा है। अतः साहचर्य के नियम का परिपालन करते हुए इस तृतीय चरण में भी 'प्रियम्' को क्रियाविशेषण के रूप में लेना यही सुसंगत एवं युक्तियुक्त कहा जायेगा । इस तरह व्यापक सन्दर्भो को हमारी दृष्टि के समाने रखते हुए पूर्वोक्त (४-१३८) श्लोक का, नवीन अर्थघटन किया जाय तभी वह सर्वकालिक बन सकता है । स्मृतिकार जब सत्यवाणी के प्रयोग को सदाचरण रूप धर्म का (सनातन धर्म) का एक स्वरूप कहते है तब सत्य का उद्घाटन हर हाल में अकुण्ठित रहना चाहिए। यही मूलभूत बात हो सकती है । इसी मूलबात के साथ किसी भी तरह का समझौता न करते हुए, "सत्य का प्रकटीकरण कैसे किया जाय ?" इसी की शिक्षा देने के लिए पूर्वोक्त श्लोक में 'प्रियम्' एवं 'अप्रियम्' शब्दों का क्रियाविशेषण के रूप में प्रयोग किया गया है । ऐसे सदाचरण रूप धर्म के परिपालन से इहलोक का अभ्युदय निश्चित है; क्योंकि इसी में 'अनृत' का पर्दाफाश करते हुए अन्वय एवं व्यतिरेक दोनों मुख से 'सत्य' का ही उद्घाटन करने का कहा गया है ।। टीप्पणी ★ संस्कृत विभाग, जय नारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर के द्वारा आयोजित "आधुनिक युग में स्मृतिशास्त्रों की उपयोगिता" विषयक राष्ट्रिय संगोष्ठी (20-21 Feb. 2004) में प्रस्तुत किया गया शोधपत्र । १. यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् । - ऋग्वेदः (१०-१०-१५) २. स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः । - श्रीमद्भगवद्गीता (३-३५) ३. चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः । - पूर्वमीमांसासूत्रम् १-१-२ ४. संस्कृत-हिन्दी कोशः, सं. वामन शिवराम आप्टे, नाग पब्लीशर्स, दिल्ली, १९८८ (पृ.४८९) 4. The foregoing discussion establishes how the word dharma passed through several transitions of meaning and how ultimately its most prominent significance came to be the privileges, duties and obligations of a man, his standard of conduct as a member of the Āryan community, as a member of one of the castes, as a person in a particular stage of life. - History of Dharmaśāstra (Vol. I. Part-1), by P. V. Kane, Bhandarkar Oriental Research Institute. Pune, 1968, (p. 3). ६. मनुस्मृतिः (मेधातिथिभाष्यसमलङ्कता) तत्र उत्तरार्धम्, सं. मनसुखराय मोर, कलकत्ता, १९७१, (पृ. ६९६) ७. सभाप्रवेशनिषेधेन चात्र व्यवहारदर्शनाधिकारप्रतिपत्तिः प्रतिषिध्यते । सभा वा न प्रवेष्टव्येति । व्यवहारदर्शनाधिकारो न प्रतिपादनीय इत्यर्थः । -- मेधातिथि: (पृ. ६९६) ८. गौतमधर्मसूत्रम् (मस्करिभाष्योपेतम्), Ed. L. Shrinivasacharya, मैसुर, १९१७, (पृ. २१६).

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