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कानजीभाई पटेल
SAMBODHI
इस तरह प्रव्रज्या -उपसंपदा का अधिकार बुद्ध → भिक्षु → उपाध्याय → संघ के पास गया। विधि में 'एहि भिक्खु' → त्रिशरण → अत्तिचतुत्थकम्म अस्तित्व में आया। अब तक प्रव्रज्या और उपसंपदा साथ ही दी जाती थी। उपसंपदा मिल जाने पर कुछ भिक्षु ठीक से वर्ताव नहीं करते थे कि विना याचना ही हमें उपसंपदा मिली है। अतः बुद्धने आदेश दिया कि याचना करने पर ही उपसंपदा देनी चाहिए । उत्तरासंग एक खंधे पर रखकर, हाथ जोडकर उनको कहे - मन्ते, संघ से में उपसंपदा की याचना करता हूँ, संघ मेरा उद्धार करे - इस तरह तीन बार कहे, फिर उत्तिकम्मसे उपसंपदा मिले । प्रव्रज्या - उपसंपदा भेद :
अब तक प्रव्रज्या और उपसंपदा साथ ही दी जाती थी । लेकिन कुछ लोग भोजन और हीन लालच से संघमें भरती होने लगे । वे प्रव्रज्या का स्वीकार करते थे लेकिन उपसंपदा के लिए तैयार न थे याने गृहस्थाश्रम का त्याग करते थे (प्रव्रज्या = घर से बेघर होना); लेकिन संघ के उच्चतर नियमों में बंधना नहीं चाहते थे । अतः बुद्धने प्रव्रज्या और उपसंपदा में भेद किया । प्रव्रज्या प्राप्त करने के बाद वह उपाध्याय के निश्रय में रहता । उपाध्याय अपने आप प्रव्रज्या दे सकता । प्रव्रज्या देनेवाले की योग्यता भी निर्धारीत की गई जिसकी लम्बी सूची महावग्ग में मिलती है । उपसंपदा उसकी विनति करने पर ही प्रदान की जाती। उपसंपदा का इच्छुक एक खंधे पर उत्तरासंघ रखकर कहता - "संघं भन्ते उपसंपदं याचामि, उल्लुम्पत्तु मां भन्ते संघो अनुकम्पं उपादाय, दुतियंपि याचितब्बो, ततियं दि याचितब्बो आदि।" फिर एक समर्थ भिक्षु संघ को ज्ञापित करे - "भन्ते, संघ मुझे सुने अमुक नाम की अमुक नाम के आयुष्मन का उम्मिदवार ( उपसंपदापेक्षी) है। यदि संघ उचित समझे तो संघ अमुक नामको अमुक नामके उपाध्यायत्व में उपसम्पदा करे।" उसका तीन बार अनुश्रावण होता। और फिर धारणा (मौन से स्वीकार) से उसको उपसंपदा मिल जाती । (विनयपिटक, महावग्ग - नालंदा, पृ. ५४)
___ सुंदर भोजन और शान्त शय्याओं के लिए उपसंपदा लेनेवालों को रोकने के लिए बुद्धने चार निश्रयों को बतलाने की अनुमति दी । ये चार निश्रय हैं - (१) पिंडियालो पभोजनं' (२) पंसुकूलचीवरं (३) रुक्खमूलसेनासनं और (४) पूतिमुत्तभेसजं । प्रव्रज्या के समय ये चार निश्रयों को बतलाने की अनुमति नहीं थी, मात्र उपसंपदा के समय ही बतलाए जाते थे । उपाध्याय और आचार्य : . संघ में भिक्षुओं की संख्या पंद्रहसो से अधिक हो गई तब बुद्ध को संघ में उपाध्याय पद की आवश्यकता महसुस हुई और उपाध्याय पद अस्तित्व में आया । उपसंपदा ग्रहण करने में उपाध्याय और आचार्य का स्थान महत्त्वपूर्ण माना जाता था। जब कोई व्यक्ति उपसंपदा के लिए उपाध्याय के पास आता तब वस्त्र इस ढंग से पहनता क़ि खंधा खुला रहे । चीवर, पात्र आदि का प्रबंध अपने आप ही करना होता था । उसके बीना या मँगनी से लाने से नहीं चलता था । वह उपाध्याय के सामने उसके चरणों में तीन बार प्रणाम करता और ऊँकडं बैठकर कहता - "आप मुझे अपना शिष्य बनाइए।" जब उपाध्याय स्वीकार कर लेता तब भिक्षुओं की परिषद बैठती । अपने ही अपने लिए और दूसरे को दूसरे के लिए