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दीनानाथ शर्मा
SAMBODHI
सायण भाष्यकार के रूप में लगभग सबसे अधिक सफल और प्रसिद्ध रहे हैं । उनकी भाषा इतनी सरल है कि कोई भी उसे समझ सकता है। वे किसी भी शब्द को व्याख्यायिति किये बिना नहीं छोड़ते । भाष्य लिखते समय प्रत्येक सूक्त के पहले वे उसकी अनुक्रमणिका प्रस्तुत कर देते हैं जिससे अध्येता को उस सूक्त के विषय, देवता, ऋषि आदि का ज्ञान हो जाता है -
'अग्नि वो देवम्' इति दशचं तृतीयं सूक्तं वसिष्ठस्यार्षं त्रैष्टुभमाग्नेयम् । अत्रेयमनुक्रमणिका-'अग्नि वो दश' इति । 'अग्नि वो देवम्' इत्येतदादीनि दशसूक्तानि तृतीयचतुर्थवर्जितानि प्रातरनुवाक् आग्नेये कतौ त्रैष्टुभे छन्दस्याश्विनशस्त्रे च विनियुक्तानि ।' (ऋक् सं० ७.१.३ की पूर्वमीठिका)
शब्दों का विधिवत् निर्वचन करते हैं और निरुक्त से उसे पुष्ट करते हैं -
'वामा मावामिन वननीयानि धनानि । तथा च यास्क:- वामं वननीयं भवति' (निरुक्त ६.३१) (ऋग्भाष्य ७.२.१८.१)
सायण एक प्रखर व्याकरणविद् हैं पाणिनिसूत्रों को यत्र तत्र भाष्य प्रयुक्त कर देना उनके लिए सहज है
Vगृहात् गृहं प्राप्य । त्यब्लोपे द्वितीयार्थे पञ्चमी पा. सू. २.३.२८.१) ऋग्भाष्य ७.२.१८.२१) ।
वे ब्राह्मण ग्रन्थों, आरण्यकों का भी उद्धरण देकर अपने भाष्य को और अधिक प्रामाणिक बना देते हैं -
सूत्रितं च - उपसाद्य त्वमग्ने यज्ञानामिति तिस्र उत्तमा उद्धरेत् (आश्वलायन श्रौतसूत्र ४.१३) इति उपसदि पौर्वाहिणक्याम् उपसद्याय इत्याद्यास्तिस्रः ऋचः सामिधेन्यः । (ऋग्भा. ७.१.१४.३)
इसी प्रकारत्वे ह यत्पिनरश्चिन्न इन्देति पञ्चदश (ऐतरेय आ. ५.२.२) इति (ऋग्भा . ७.२.१८.२)
इस प्रकार हम देखते हैं कि सायण में वे सभी योग्यताएं विद्यमान हैं जो एक आदर्श भाष्यकार में अपेक्षित होती हैं । निश्चय ही उन्होंने वैदिक वाङ्मय, निरुक्त व्याकरण, छन्दःशास्त्र, दर्शन आदि का गहन अध्ययन किया होगा और तत्पश्चात् ही वेदों का भाष्य लिखने को तत्पर हुए होंगे । सन्दर्भ ग्रन्थसूची १. ऋग्वेदसंहिता (सायणभाष्य सहित) भाग -३ प्रकाशक वैदिक संशोधक मण्डल, पूना (६-८ मण्डल)
१९४१ २. वैदिक वाङ्मय का इतिहास भाग-२ (वेदों के भाष्यकार) ले. पंडित भगवद्दत्त, प्रणव प्रकाशन, दिल्ली
१९७६ निरुक्तम् - यास्क (१,२,४ और ७ अध्ययन) सं. वसन्तकुमार मनुभाई भट्ट, सरस्वती पुस्तक भण्डार, अहमदाबाद-१९९७
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