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Vol. xxVII, 2004
वेदार्थघटन और सायणाचार्य
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निर्ऋतिमाविवेश" (ऋग् १.१६४.३२) इस मन्त्र का यास्कने परिव्राजकों के मतानुसार इस प्रकार आध्यात्मिक अर्थ किया है - बहु प्रजाः कृच्छ्रमापद्यते इति पारिव्राजकाः वर्षकमेति नैरुक्ताः (निरुक्त २-२)
कात्थक्य और शाकपूणि : निरुक्त के आठवें अध्याय में अप्रीसूक्तों के अर्थघटन में दो आचार्यों का मतभेद होता है । अप्रीसूक्तों में तनून्पात, नाराशंस, देवीद्वार, समिद्ध बर्हिष् आदि ग्यारह देवताओं की स्तुति है। इसमें शाकपूणि का मत यह है कि यहाँ ग्यारह नाम अग्नि के ही पर्याय हैं लेकिन कात्थक्य का कहना है कि यहाँ यज्ञादि में प्रयुक्त ईंधन, घी, यज्ञशालाद्वार आदि यज्ञसामग्री का उल्लेख है और उन्हें देवता मानकर स्तुति की गयी है। शाकपूणि ने वैदिक शब्दों का निर्वचन भी किया है ऐसा यास्क के निरुक्त में उनके मत के उल्लेख से ज्ञात होता है अग्नि शब्द के निर्वचन में उनका मत निम्नवत् है - "त्रिभ्य आख्यातेभ्य: जायते इति शाकपूणिः । इतात् । अलात् दग्धाद् वा । नीतात् ।" (निरुक्त ७.४)
नैदान सम्प्रदाय :- यास्क ने वेदार्थ घटन करने वाले नैदानों का की उल्लेख किया है, लेकिन इस सम्प्रदाय की क्या मान्यता थी - यह ज्ञात नहीं है। निरुक्त के सातवें अध्याय में नैगम सम्बन्धी निम्नवत् उल्लेख है -
"साम सम्मितं ऋचा अस्यतेर्वा ऋचासमं मेने इति नैदानाः ।"
इस प्रकार यास्क ने वेदार्थ घटन करने वाले नैरुक्त, वैयाकरण, ऐतिहासिक, याज्ञिक पारिवाजक और नैदान इन छः सम्प्रदायों का उल्लेख किया है । वेदार्थ घटन करने वाले कौत्स को भी ले लें तो यह संख्या सात हो जाती है ।
सायणाचार्य उपर्युक्त परम्पराओं में से याज्ञिक परम्परा के पोषक हैं - यह उनके भाष्य से विदित होता है । वे मन्त्रों का यज्ञाभिमुख अर्थघटन करते हैं । जो स्तुति सर्वसाधारण के लिए की गयी मानी जा सकती है उसका अर्थघटन वे यज्ञकर्ता यजमानों के लिए करते हैं ।
"आ यस्ते अग्न इधते अनीकं वसिष्ठ शुक्र दीदिवः पावक । उतो न एभिः स्तवथैरिह स्याः ॥" ७-१-१-८ भाष्य
v वसिष्ठ श्रेण्ठ v शुक शुभ्र -दीदिवः दीप्त: V पावक शोधक हे v अग्ने v ते तव । अनीकं तेज: v य: vआ Vइधते समेधयति तस्येव Vन: अस्माकम् Vउतो अपि च Vएभिः स्तवथैः स्तोत्रैः Vइह अस्मिन् यज्ञे vस्याः भव ॥
इस मन्त्र के द्वारा की गई अग्नि की स्तुति को सर्व साधारण के पक्ष में अर्थघटित किया जा सकता था यदि 'इह' शब्द का अर्थ अस्मिन् लोके किया जाता, लेकिन सायण ने उसे मोड़कर 'यज्ञ कार्य में' यह अर्थ किया है। ऐसे अनेक उदाहरण सायण भाष्य में मिलते हैं ।