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सम्यक्श्रद्धा की एक पांख : तत्वार्थश्रद्धान | ४३
प्रकट करने लगे, अथवा आत्मा के सर्वोच्च विकासरूप या सर्व कर्म विमुक्तिरूप मोक्षतत्व को मिथ्या कहने लगे । जीव (आत्मा) का अस्तित्व न मानकर (अजीव) शरीर को ही सब कुछ मानने लगे। ऐसी स्थिति में उस व्यक्ति की जीवादि तत्वों पर हई निष्ठाहीन क्षणिक श्रद्धा को सम्यकश्रद्धा-निष्ठायुक्त या प्रतीतियुक्त श्रद्धा नहीं कहा जा सकता।
निष्कर्ष यह है कि उस व्यक्ति की इन तत्वभूत पदार्थों पर श्रद्धा इतने मात्र से सच्ची श्रद्धा नहीं कही जा सकती । जिसकी बुद्धि अत्यन्त तीव्र हो, जो शास्त्रों या ग्रन्थों को पढ़ सुनकर या रट-रटाकर इन तत्वभूत पदार्थों के नाम, भेद-प्रभेद, अर्थ, लक्षण या परिभाषाएँ कण्ठस्थ कर लेता है, इन जिनोक्त तत्वभूत पदार्थों का स्वरूप स्वयं जानकर, दूसरों को भी इनका स्वरूप समझा देता है । स्वयं अपनी वाणी से उन तत्वों पर लम्बे चौड़े भाषण भी दे देता है, वाणी से श्रद्धा भी प्रकट कर देता है, तत्वभूत पदार्थों के सम्बन्ध में चर्चा या शंका-समाधान भी कर देता हो, तत्वज्ञान की परीक्षाएं देकर उनमें पास भी हो जाता है। परम्परागत संस्कारों के कारण वह अपने तथाकथित सम्प्रदाय या पंय के गुरु से उन तत्वभूत पदार्थों का स्वरूप जानकर उन्हें ग्रहण भी कर लेता है, तथा उनके समक्ष वाणी से यह भी प्रकट कर देता है कि ये ही तत्वभूत पदार्थ सत्य हैं, शेष नहीं।
वस्तुतः उसी की श्रद्धा को सम्यग्दर्शन या सम्यकश्रद्धा कहा जा सकता है, जो किसी दूसरे के द्वारा सांसारिक उपलब्धि के लिए उकसाये बिना, अथवा कूलपरम्परा, साम्प्रदायिक मोह या पक्षपात के आधार पर प्राप्त किये बिना, या अपने जाने-माने परिचित गुरुओं पर अन्धभक्ति, विवशता या लोकप्रतिष्ठा को लेकर प्राप्त किये बिना,स्वयं हार्दिक निष्ठापूर्वक उन तत्वभूत पदार्थों में से उपादेय तत्वों को ग्रहण करने तथा हेय तत्वों को छोड़ने की प्रबल भावना करता हो, जीवन को उस श्रद्धा के अनुरूप ढालने में यथाशक्ति संकोच न करता हो, अपनी प्रसिद्धि या प्रतिष्ठा को ढाल बनाकर या अपनी लाचारी को प्रकट करके श्रद्धानुरूप प्रवृत्त होने की अपनी शक्ति को न छिपाता हो।
इस आत्मा में अनन्तकाल से जैसे तत्वभूत पदार्थों के प्रति अश्रद्धान रहा है, वैसे ही अतत्वभूत पदार्थों के प्रति श्रद्धान भी रहा है। दोनों ही मिथ्यादर्शन हैं-तत्वविषयक पदार्थों के प्रति यथार्थ श्रद्धान का अभाव भी.
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