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२२ | सद्धा परम दुल्लहा दिल में विश्वास और सत्यप्रियता की छाप बिठा दी थी। जिस सत्य के कारण महात्मा गाँधी इतने निर्भीक होकर ब्रिटिश सरकार को सच्ची बात कह सकते थे। जिस अहिंसा धर्म के बल पर ब्रिटिश सरकार तक का सिंहासन हिला दिया और स्वराज्य प्राप्त कर लिया था। जिस शीलधर्म के बल पर सुदर्शन सेठ को दण्ड के रूप में मिली शूली सिंहासन बन गई थी। क्या उस धर्म के प्रताप और प्रभाव के विषय में कभी अविश्वास हो सकता
किन्तु मध्ययुग में और आज भी कहीं-कहीं धर्म के नाम पर अन्याय, अत्याचार, शीलहरण, ठगी, लडाई, झगड़े, सिरफुटौव्वल, कलह, वादविवाद, गाली-गलौज, हत्या, आतंक, निन्दा, टीका-टिप्पणी, नुक्ताचीनी और चखचख आदि हुए हैं, पर वे क्या सत्य-अहिंसादि धर्म के नाम पर हुए हैं, होते हैं या धर्म के नाम से प्रचलित संघ, तीर्थ, समाज, सम्प्रदाय, मत, पंथ आदि के कारण हए हैं या होते हैं ? वास्तव में देखा जाय तो अन्याय-अत्याचार आदि जितने भी अधर्म या अनाचार धर्म के नाम से हुए हैं, वे सत्य-अहिंसादि धर्म के नाम से नहीं हुए, जब भी हुए हैं वे सम्प्रदाय, पंथ, मत आदि के कारण हुए हैं। इस बात को भलीभाँति समझ लिया जाए तो सद्धर्म के नाम पर कभी अधर्म या अनाचार हो नहीं सकता।
___ वर्तमान काल के कई तर्कशील शिक्षित युवक धर्माचरण करने वालों या भिष्ठ पुरुषों को संकट, कष्ट या विपत्ति में पड़े या अभावपीडित देखकर धर्म पर अविश्वास और कुशंका करने लगते हैं कि धर्म यदि जीवन को सुखमय बनाता है तो भगवान महावीर, सुदर्शनसेठ, धर्मिष्ठ पाण्डव आदि पर इतना संकट क्यों आया ? क्यों इन्हें कष्टों के पहाड़ों से गुजरना पड़ा ? परन्तु वे यह भूल जाते हैं कि मनुष्य की जीवनयात्रा केवल इसी जन्म से प्रारम्भ नहीं हुई है, उसकी आत्मा अनेक जन्मों में भ्रमण करती हुई आई है, उस आत्मा ने पूर्वजन्मों में जो पापकर्म किये होंगे, उनके उदय में आने पर उन पूर्वकृत पापकर्मों का फल प्रत्येक व्यक्ति को भोगना पड़ता है। इस जन्म में जो व्यक्ति सद्धर्म का आचरण कर रहे हैं, उन्हें उनका फल कभी यहीं और कभी अगले जन्म/जन्मों में मिलता ही है। इसमें धर्म का क्या दोष है ? इसमें धर्म पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं है। बल्कि जो लोग सद्धर्म पर विश्वास रखते हैं, और सद्धर्म का आचरण करते हैं, वे उस आने वाले कष्ट, संकट या अभाव को कष्ट, संकट या अभाव मानते ही नहीं । वे मानते हैं कि ये हमारे किन्हीं पूर्वकृत कर्मों के फल हैं, इन्हें वे समभाव से भोगते हैं, सहन करते हैं, किसी भी निमित्त को वे दोष नहीं देते, न कोसते हैं, अपितु अपने उपादान को ही देखते हैं।
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