Book Title: Saddha Param Dullaha
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 422
________________ कर्मवाद : आस्तिक्य का प्राण | २७१ जाते हैं । वे ही द्रव्यकर्म कहलाते हैं, उन द्रव्यकर्मों के बन्ध के कारण ही आत्मा कर्मपुद्गलों का कर्ता होता है, उन्हीं के फलस्वरूप सुख-दुख भोगता है। जब द्रव्यकर्मों का कर्ता आत्मा है तो भोक्ता भी वह स्वयं ही है । जो दर्शन यह कहते हैं कि कर्म करने और उसका फल भोगने में आत्मा स्वतंत्र नहीं है, ईश्वर, प्रकृति, माया या अदृश्य शक्ति के अधीन है, अथवा मनुष्य कर्म करने में तो स्वतन्त्र है, किन्तु पूर्वकृत अशुभकर्म के फल भोगने में स्वतन्त्र नहीं अमुक देव देवी के समक्ष स्तुति, यज्ञ आदि करके उन्हें प्रसन्न करने से अशुभ कर्म के फल से बच सकता है । परन्तु ये दोनों मन्तव्य आत्मा के स्वतन्त्र कर्तृत्व शक्ति के ह्रास करने वाले एवं युक्तिविरुद्ध हैं। अतः अपने किये हुए कर्मों का फल आत्मा को स्वयं ही भोगना पड़ता है। - जीव कर्म करने और फल भोगने में स्वतन्त्र या परतन्त्र ? एक दृष्टि से देखा जाए तो आत्मा जैसे कर्म करने में स्वतन्त्र है, वैसे ही कर्मों का क्षय करने, आते हुए कर्मों को रोकने, तथा अशुभ कर्मों को शुभ में परिणत करने में एवं दीर्घकालीन स्थिति वाले कर्मों को अल्पकालीन बनाने में भी वह स्वतन्त्र है। आशय यह है कि काल आदि लब्धियों की अनुकुलता हो तथा अशुभ कर्म का निकाचित बन्ध न हुआ हो तो जीव कर्मों को परास्त भी कर सकता है। यदि निकाचित बन्ध हो तो भी अशुभफल भोगते समय राग-द्वेष-कषायादि न करके समभाव, धैर्य, शान्ति एवं सहिष्णुता रखे तो वे कर्म भी अपना फल देकर समाप्त हो जाते हैं। वे उस आत्मा पर हावी नहीं हो सकते । इस दृष्टि से कर्म का कर्ता जैसे आत्मा है, वैसे भोक्ता भी वही है । कर्म करना भी उसके अधीन है, फल भोगना भी । एक के कर्म के बदले दूसरा फल नहीं भोग सकता, न ही कर्मफलस्वरूप आने वाले सुख-दुःख को दूसरा कोई बाँट सकता है। हाँ, तीव्र राग द्वेष से लिप्त आत्मा अपना कर्मफल भोगते समय परतन्त्र (कर्माधीन) हो जाता है। जैसे मद्य का पान करने में जीव स्वतंत्र होता है, किन्तु उसके कारण मूच्छित एवं उत्मत्त हो जाने पर वह परतंत्र हो जाता है । अतः कर्मों की बहुलता या निकाचित कर्मों के फलभोग के समय जीव प्रायः कर्माधीन हो जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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