Book Title: Saddha Param Dullaha
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 425
________________ २७४ । सद्धा परम दुल्लहा उनमें चार बातें उत्पन्न हो जाती हैं - (१) उनका स्वभाव, (२. उनकी स्थिति, (३) उनकी फल देने की शक्ति और (४) अमुक परिमाण - संख्या में उनका जीव के साथ सम्बद्ध होना। ये चारों द्रव्यकर्मबन्ध के प्रकार हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं -- (१) प्रकृतिबन्ध, (२) स्थितिबन्ध, (३) अनुभाग (रस) बन्ध और (४) प्रदेशबन्ध । आत्मप्रदेशों के साथ कर्मपुद्गलों के आश्लेष की अपेक्षा से सर्वप्रथम योग द्वारा प्रदेशबन्ध, फिर स्वभाव निर्माण (प्रकृतिबन्ध), तत्पश्चात कषाय द्वारा कालमर्यादा (स्थितिबन्ध) और फल शक्ति के निर्माण (अनुभागवन्ध) की अपेक्षा से क्रमशः प्रकृति, स्थिति और अनुभाग रूप में बन्ध होता है। कर्मों की मूल प्रहयाँ एवं कार्य __ कर्मों के विभिन्न स्वभावों के अनुसार उनका ८ भागों में वर्गीकरण किया गया है। उन्हें कर्म की मूल प्रकृतियाँ कहते हैं। वे आठ इस प्रकार हैं -- (१) ज्ञानावरणीय, (२) दर्शनावरणीय, ३) वेदनीय, (४) मोहनोय, (५) आयुष्य, (६) नामकर्म, (७) गोत्रकर्म और (८) अन्तराय । जब कोई कर्म किया जाता है, तब उस कर्म के परमाणु आठ भागों में विभक्त हो जाते हैं। इन आठों मूल कर्म प्रकृतियों (कर्मों) में से चार घात्य या घातिक हैं और चार अधात्य या अघातिक हैं । घात्यकर्म वे हैं, जो आत्म गुणों और आत्मशक्तियों के आवरक, विकारक एवं प्रतिरोधक हैं। वे चार हैं-- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय। (१) ज्ञानावरणीय -- जो आत्मा के ज्ञानगुण को आवृत करता है, वह ज्ञानावरणीय है। (२) दर्शनावरणीय-जो आत्मा के दर्शन-गुण को आच्छादित कर देता है, वह दर्शनावरणीय है। (३) मोहनीय-जिस कर्म के वशीभूत होकर जीव सम्यग्दर्शन, सम्यकचिन्तन, एवं सम्यकआचरण (चारित्र) को भूलकर अथवा अपने सम्यग्भाव या स्वस्वरूप को भूलकर केवल मिथ्यादर्शन, मिथ्या चिन्तन या मिथ्याचरण अथवा मिथ्याभाव या परभाव में प्रवृत्त रहता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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