Book Title: Saddha Param Dullaha
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 429
________________ आस्तिक्य का चतुर्थ आधार : क्रियावाद आस्तिक्य का चतुर्थ मुख्य आधार क्रियावाद है । दूसरे शब्दों में कहें तो क्रियावाद ही आस्तिक्य का मेरुदण्ड है। अतः पहले हमें क्रियावाद का स्वरूप समझना होगा । क्रियावाद के साथ-साथ उसके प्रतिपक्षी अक्रियावाद को भी समझ लेना आवश्यक है। क्योंकि जहाँ तक आचार का प्रश्न है, वह विचार पर आधारित है, जैसा विचार होगा, वैसा ही आचार होगा। इसीलिए सर्वप्रथम क्रियावाद की विचारधारा को समझने के लिए उसको यथार्थरूप से जानना, दृढ़तापूर्वक मानना अनिवार्य है। ये दोनों होंगे, तभी उसे सम्यक्रूप से जानकर उस पर उत्कृष्ट आस्था रख कर साधक दृढ़तापूर्वक आचरण कर सकेगा। अतः क्रियावाद को माने बिना साधक केवल आत्मा, परमात्मा, लोक-परलोक, या कर्म-कर्मफल को जानकर एवं मानकर ही अपने कल्याण की इतिश्री समझ लेगा। क्रियावाद आत्मा के अन्तिम लक्ष्य -- मोक्ष की ओर तीव्रता से पुरुषार्थ करने की बात कहता है । उसको माने बिना आत्मा की परम शुद्ध दशा की प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ करना कठिन होगा। क्रियाबाद : सम्यवाद क्रियावाद को आस्तिक्य की चरमसीमा कहा गया है। इसलिए उसका एक फलितार्थ किया गया है- क्रियावादः सम्यग्वादः' जो मान्यता सत्यता से विभूषित हो, जिसकी तत्त्व-प्ररूपणा यथार्थवाद के जल से अभिषिक्त हो, वही सम्यग्बाद है, उसे ही दूसरे शब्दों में क्रियावाद कहा गया है । जो वस्तु संसार में विद्यमान है, उसे 'है' कहना और जो अविद्यमान है. उसे नहीं है' कहना सम्यग्वाद है। क्रियावाद-सम्यग्वाद या अस्तिवाद २७८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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