Book Title: Saddha Param Dullaha
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

View full book text
Previous | Next

Page 437
________________ २८६ | सद्धा परम दुल्लहा सर्वशा क्षय करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त, निरंजन-निराकार परमात्मा हो जाते हैं । उन्हें ही क्रियावादी सिद्ध कहते हैं। वे आठों ही कर्मों, जन्म, जरा, मरण, शरीर, चतूर्गतिक संसार, व्याधि, उपाधि आदि से सर्वथा रहित मुक्त हो जाते हैं। आत्मा का अन्तिम लक्ष्य मोक्षपद उन्हें प्राप्त हो जाता है। उन्हें फिर संसार में लौटकर आना नहीं होता। वे निरंजन-निराकार परमात्मा १५ प्रकार से हो सकते हैं ? तथा ऐसे निराकार परमात्मा विश्व के कर्ता-धर्ता-संहा कदापि नहीं हो सकते। ऐसे सिद्ध परमात्मा (ईश्वर) एक नहीं, अनेक हुए हैं, और हो सकते हैं। वे कृतकृत्य परमात्मा हो जाते हैं। परन्तु अक्रियावादी इन्हें इन्द्रियप्रत्यक्ष न होने से नहीं मानते । अरिहन्त संसार में रहते हुए भी संसार से अनासक्त, अलिप्त. उच्चकोटि के आध्यात्मिक महापुरुष होते हैं, जबकि सिद्ध संसार से, संसार के कारणों - शरीर, कर्म, जन्म-मरण आदि से सर्वथा मुक्त होते हैं। इन दोनों के आदर्श को माने बिना मानव-जीवन में रत्नत्रय साधना से कर्मक्षय का राजमार्ग साधक को मिल नहीं सकता। इसलिए इन दोनों का अस्तित्व मानना अनिवार्य है। स्मरण रहे सभी तीर्थकर अरिहन्त होते हैं. किन्तु सभी अरिहन्त तीर्थंकर नहीं होते। अरिहन्तत्व क्षायिक भाव है और तीर्थकरत्व औदयिकभाव । अरिहन्तत्व आत्मा का सदाकालभावी निजी भाव है, जबकि तीर्थंकरत्व तीर्थंकरनामकर्म के उदय से प्राप्त होने वाली असीम पुण्य राशि का फल है । तीर्थंकर संसार में रहते हुए अपनी ज्ञानादि सम्पत्ति का वितरण करते रहते हैं, वे स्वय संसार समुद्र को पार करते हैं, दूसरों को तारते हैं, स्वयं मुक्त होते हैं, दूसरों को मुक्त कराते हैं, स्वयं बुद्ध होते हैं, दूसरों को बोध कराते हैं । सर्वोत्कृष्ट निःस्वार्थ परमोपकारो, विश्ववत्सल एवं विश्व बन्धु होते हैं । इन दोनों देवाधिदेवों को क्रियावादी मानते हैं, और आत्मविकास का पुरुषार्थ करते हैं। चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव का अस्तित्व-क्रियावादी चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव इन तीनों को मानते हैं। ये तीनों पद पूर्वकृत पुण्यराशि के फलस्वरूप प्राप्त होते हैं । चक्रवर्ती छह खण्ड के और वासुदेव तीन खण्ड के अधिपति होते हैं। चक्रवर्ती शासक चौदह रत्नों और नौ निधियों के स्वामी तथा एकछत्रीय राज्य-सत्ता, आज्ञाधीन राजा, अपार सैन्यबल, दास, दासी, रमणीरत्न, पशु, देवों द्वारा रक्षा-तत्परता, आदि इनके पूर्वपुण्यों के फलस्वरूप अपार वैभव के चिन्ह हैं । इस अवसर्पिणीकाल में भरत चक्री से लेकर ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती तक १२ चक्रवर्ती हो चुके हैं। इनमें से जो चक्रवर्ती शान्तिनाथ, कुन्थुनाय और अरनाथ की भांति भोग-लिप्सा से दूर होकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444