Book Title: Saddha Param Dullaha
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 433
________________ २८२ | सद्धा परम दुल्लहा इसके विपरीत क्रियावादी का कथन यह है कि आत्मा के अस्तित्व में सन्देह मत करो। वह अमूर्त है, इसलिए इन्द्रियग्राह्य नहीं है। जीव (आत्मा) द्रव्याथिकनय की दृष्टि से नित्य है, किन्तु स्वकृत मिथ्यात्व, अज्ञान, एवं राग-द्वषादि दोषों के कारण हए कर्मबन्ध के फलस्वरूप नाना गतियों एवं योनियों में परिभ्रमण करने तथा मनुष्य, तिथंच आदि नाना पर्यायों में परिणत होने के कारण अनित्य भी है। अतः जीव को जड़ भूतों का विकार नहीं माना जा सकता। भगवान महावीर ने जीव (आत्मा) का लक्षण बताया है - "नाणं च दंसणं चेव चरित्तं च तवो तहा । वीरियं उवोगो य, एयं जीवस्स लक्खणं ॥" ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप तथा वीर्य और उपयोग आदि जीव के असाधारण लक्षण हैं। ये गुण या लक्षण अजीव (जड़) पंचभूतों के विकार नहीं हो सकते। जब सब कुछ जड़ (अजीव) ही है तो अजीव को जीव आत्मा की स्मृति कैसे होती ? अतः अक्रियावादियों की यह शंका ही जीव के अस्तित्व का प्रबल प्रमाण है । अतः क्रियावादी यह मानते हैं कि जीव पहले भी था, अब भी है और भविष्य में भी रहेगा। अजीव का अस्तित्व-क्रियावादी कहते हैं कि अजीव का भी जोव से भिन्न स्वतंत्र अस्तित्व है। वह परमाणु की अपेक्षा से नित्य है और स्कन्ध, देश, प्रदेश की अपेक्षा से अनित्य । परिवर्तन तो परमाण में भी होता रहता है, परन्तु वह मूलतः नष्ट नहीं होता । इसीलिए भगवान महावीर ने अजीव को नौ तत्त्वों में दूसरा मूल और स्वतंत्र तत्व माना है। पुरुषाद्वैतवादी 'एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म'- सर्वत्र एक ही ब्रह्म है, दूसरा कुछ नहीं; का सिद्धान्त प्रस्तुत करके कहते हैं--अजीव का तो केवल आभास या अध्यास होता है, वह मिथ्या है, माया है भ्रम है, जो तत्वज्ञान होने पर उड़ जाता है । इस प्रकार अजीव के पृथक् अस्तित्व से इन्कार किया है, किन्तु जीव के लक्षण अजोव में कदापि घटित नहीं हो सकते । इसलिए 'पुरुषाद्वैतवाद' का सिद्धान्त खण्डित हो जाता है। बन्ध और मोक्ष का अस्तित्म-- अक्रियावादियों का कहना है कि जव आत्मा ही नहीं है, तब किसका बन्ध और किसका मोक्ष ? इसी प्रकार कई लोग आत्मा को आकाश की तरह निर्बन्ध मानते हैं, उनके मत में आत्मा एकान्त अरूपी और अमर्त है । जैसे-सांख्यदर्शन पुरुष (आत्मा) को सर्वथा मुक्त मानता है। वह प्रतिविम्चिन पुरुष (आत्मा) को वद्ध कहता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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