Book Title: Saddha Param Dullaha
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 431
________________ २८० | सद्धा परम दुल्लहा वादी होता है, वह आत्मवाद, लोकवाद और कर्मवाद, इन पूर्व-पूर्व वादों को अवश्य मानता है, किन्तु इनसे आगे बढ़कर वह अपनी शक्ति (वीर्य) की शुद्धि में जीवन को लगा देता है; क्योंकि वह जानता है कि वीर्य (शक्ति) के अशुद्ध होने से आत्मा संसार में परिभ्रमण करता है, और शुद्ध वीर्य से संवर युक्त बनता है। जैसा कि कहा है-'क्रिया हि वीर्यशुद्धिहेतुर्भवति' क्रियावादी की क्रिया वीर्य शुद्धि का कारण बनती है। योग -मन-वचन-काया की प्रवृत्ति वीर्य से होती है। और क्रियावादी योगों से सत्प्रवृत्ति ही करता है। योगों की सत्प्रवृत्ति ही क्रिया होती है । यही कारण है कि क्रियावादी के लिए भगवान ने पाप और पुण्य अथवा अधर्म और धर्म के कारणों को जानने-मानने और विश्वास को सक्रिय बनाने का निर्देश किया है "अस्थि पाणाइवाए, मुसावाए, अदिण्णादाणे, मेहणे, परिग्गहे, अत्थि कोहे माणे माया लोभे, जाव मिच्छादसणसल्ले।" ___ "अत्थि पाणाइवाए-वेरमणे, मुसावाए-वेरमणे, अदिण्णादाण-वेरमणे, मेहुण-वेरमणे, परिग्गह-वेरमणे, कोह-विवेगे जाव मिच्छादसण-सल्लविवेगे।" जगत् में कोई दुःख है तो उसका कोई न कोई ज्ञात-अज्ञात कारण होना चाहिए। वस्तुतः अज्ञान ही दुःख का कारण है, किन्तु व्यवहार में पाप को दुःख का कारण बताया गया है। वे पाप-स्थान १८ हैं, उनका अस्तित्व है, ऐसा क्रियावादी मानता है, तथा उन १८ ही पापस्थानों से आत्मा मुक्त भी हो सकता है, इन पापों से व्यक्ति विरत हो सकता है, पापों से विरमण का अस्तित्व अनेक साधकों ने अहिंसादि की साधना करके सिद्ध कर दिया है । ऐसा जानने-मानने वाला भी क्रियावादी है। क्रियावादी वस्तु तत्व से इन्कार नहीं करता, और न ही मिथ्याग्रहवश वस्तुस्थिति के विरुद्ध कुयुक्ति एवं कुतर्क देकर उसका खण्डन करता है, जबकि अक्रियावादी विश्व में वर्तमान तत्त्वों का अपलाप करता है । मिथ्यात्वग्रस्त होने के कारण वह वस्तुस्वरूप को दुष्ट हेतुओं और दुष्प्रमाणों से अन्यथा समझता है । अतः वह नास्तिक है।। लोक-अलोक का अस्तित्व-क्रियावादी लोक और अलोक को, सर्वज्ञ आप्त-पुरुषों द्वारा उपदिष्ट तथ्य के अनुसार जानते-मानते हैं, जबकि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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