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कर्मवाद : आस्तिक्य का प्राण | २७५
(४) अन्तराय-जिस कर्म के कारण आत्मा की दान, लाभ, भोग, उपयोग और वीर्य (पुरुषार्थ) की शक्ति में विघ्न-बाधाएँ आयें, या पदार्थ पास में होते हुए भी उनका दान, भोग, या उपभोग न किया जा सके, उपलब्ध होने योग्य पदार्थ न मिल सके, उसका नाम अन्तराय कर्म है।
इन चारों धात्य कर्मों के क्षय करने के लिए आत्मा को तीव्र पुरुषार्य करना होता है । ये चारों कर्म अशुभ ही होते हैं ।
अघात्यकर्म वे हैं, जो आत्मा के निज-गुणों या अत्मशक्तियों को आघात न पहुँचा सकें, किन्तु विशेषत शरीर या इस जन्म से सम्बन्धित हों। अघात्य कर्म चार हैं - वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्रकर्म। ये चारों शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के होते हैं ।
(५) वेदनीयकर्म-- जिस कर्म के प्रभाव से आत्मा निजानन्द आत्मिक सुख) को भूलकर सांसारिक सुखरूप (पुण्य) या दुःखरूप (पाप) फल को भोगता है, वेदन (अनुभव) करता है, उसे वेदनीय कहते हैं। इसके दो भेद हैं ... सातावेदनीय और असातावेदनीय। ये क्रमशः सांसारिक सुखानुभूति और दुःखानुभूतिरूप फल के निमित्त बनते हैं।
(६) नाम कर्म-- जिस कर्म के उदय से जीव शुभ या अशुभ शरीर, उसके अंगोपांग तथा प्रभाव आदि प्राप्त करता है. वह नामकर्म कहलाता है । इसके भी दो प्रकार हैं शुभ और अशुभ ।
(७) गोत्र कर्म-- जिस कर्म के द्वारा आत्मा को जाति, कुल, गोत्र आदि उच्चता या नीचता प्रतीत होती है, उसे गोत्र कर्म कहते हैं। यह दो प्रकार का है --- उच्चगोत्र और नीचगोत्र। ये क्रमशः उच्चता-नीचता या सम्मान-असम्मान के निमित्त बनते हैं।
(८) आयुष्य कर्म - इस कर्म के कारण आत्मा चारों गतियों में परिभ्रमण करता है, अमुक कालावधि तक स्थिति करता है, टिका रहता है, उसे आयुष्य कर्म कहते हैं । इसके भी दो प्रकार हैं---शुभायु और अशुभायु। चारों गतियों में से मनुष्यायु और देवायु, ये दो शुभ हैं और तिर्यञ्चायु और नरकायु, ये दो अशुभ हैं। इनके संयोग से जीवन क्रमशः सुखी और दुःखी होता है।
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