Book Title: Saddha Param Dullaha
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 420
________________ .. कर्मवाद : आस्तिक्य का प्राण ! २६६ इसका समाधान यों है कि स्थूलदृष्टि से देखने पर तो कर्म की शक्ति प्रबल प्रतीत होती है, परन्तु सूक्ष्मदष्टि से विचार किया जाए तो आत्मा की शक्ति ही प्रबलतर प्रतीत होगी। जैसे पानी से लोहा कठोर प्रतीत होता है, किन्तु उसी कठोर लोहे के साथ पानी का लगातार संयोग होने पर वह उसे जंग लगाकर काट डालता है उसी प्रकार कर्म की शक्ति बाह्य दृष्टि से आत्म-शक्ति से प्रबल मालूम होते हए भी आत्मा जब पूर्ण मनोयोगपूर्वक तप, त्याग, संयम या रत्नत्रय की सर्वांगरूप से साधना करता है तो उससे प्रबल बनी हुई आत्मशक्ति कर्मशक्ति को परास्त कर देती है। फिर वह आत्मशक्ति पर हावी नहीं हो सकती। अगर आत्मा कर्मों पर विजय नहीं कर पाता तो तप, संयम आदि की साधना का कोई अर्थ नहीं रहता। अपनी आत्मशक्ति का भान विवेकी सम्यग्दष्टि कर्मवादी को हो जाता है तो उस आत्मा की विजय कर्म पर हो सकती है । विवेकी कर्मवादी की आत्मा में विवेक का दीपक प्रज्वलित हो उठता है कि भले ही मेरी आत्मा पर अनादिकाल से कर्म लगे हों, वे मेरी अज्ञान-मोह-रागद्वषादिजन्य भलों के कारण से लगे हैं । अगर मैं तप, संयम, त्यागादिपूर्वक आत्मशक्ति संचित कर पूर्ण साहस एवं दृढ़ निश्चय के साथ कर्मों के साथ जूझ पडूं तो इनके छिन्न-भिन्न होते क्या देर लगेगी ? अर्ज नमूनि की आत्मा ने गृहस्थ जीवन में ११४१ व्यक्तियों की निर्मम हत्या करके छह महीने में कितने घोर पापकर्मों का बन्ध कर लिया था ? यदि वे कर्मशक्ति को प्रबल मानकर उसके वशवर्ती हो जाते तो कदापि अपने कृतकर्मों पर विजय नहीं पा सकते थे । किन्तु 'कर्मशक्ति से आत्मशक्ति प्रबल है' इस भगवत्प्रदत्त मूलमंत्र पर निष्ठा व आस्था रखकर उन्होंने परीषहों और उपसर्गों को पूर्ण आत्मशक्ति के साथ समभाव से सहन किया, तप, त्याग, तितिक्षा और क्षमा पर दृढ़ रहे, आत्मा में जरा भी ग्लानि नहीं आने दी। फलस्वरूप छही महीनों में उन्होंने अपनी प्रबल आत्मशक्ति से समस्त कर्मों को परास्त कर दिया । वे सर्वथा कर्ममुक्त, सिद्ध बुद्ध हो गए। यह कर्मशक्ति पर आत्मशक्ति की विजय का ज्वलन्त उदाहरण है। ___इसके विपरीत जिस आत्मा को अपनी आत्मशक्ति का भान नहीं है, जो स्वभाव को छोड़कर बार-बार बरबस परभावों या विभावों के प्रवाह में बह जाता है। स्वभाव-रमणता को छोड़कर परभावों में रमण करता है, रागद्वेष, कषाय एवं मोहवश होकर परपदार्थों को अपनाता है, उनमें से किसी को सुखरूप और किसी को दुःखरूप मानता है, उस आत्मा पर जड़ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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