Book Title: Saddha Param Dullaha
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 418
________________ कर्मवाद : आस्तिक्य का प्राण | २६७ इसलिए कर्मफल तत्काल न मिले, देर से मिले या अगले जन्म में मिलना सम्भव हो, तो भी अल्पबुद्धि अधीर लोग निराश और हताश होकर आस्था खो बैठते हैं । कई लोग तो कर्मफल तत्काल न मिलने के कारण 'कभी नहीं मिलेगा' इसलिए हम अशुभकर्मफल से सदा बचे रहेंगे, अथवा परिपाक की अवधि पूरी होने पर भी बिना दण्ड पाए, इसी प्रकार स्वच्छन्द कुकृत्य करते हुए घूमते रहेंगे, इस प्रकार सोचते रहते हैं । कर्मफल के प्रति इस प्रकार की अश्रद्धा होने से बालबुद्धि लोग पुण्य के सम्बन्ध में निराश और पाप के सम्बन्ध में निर्भय हो जाते हैं । जो करणीय है, उसे छोड़ बैठते हैं और जो अकरणीय है, उसे करने लगते हैं । कर्मफल में होने वाले विलम्ब के कारण ही तत्काल फलवादी लोग दुष्कर्मों के लिए साहसी और सत्कर्मों के लिए निरुत्साही हो जाते हैं । कर्मवाद के सम्बन्ध में सामान्य व्यक्तियों की श्रद्धा बहुधा तब डगमगा जाती है जब पापियों एवं दुराचारियों को सुखी, स्वस्थ, धनाढ्य और सम्पन्न देखा जाता है और धर्मिष्ठ सज्जनों को दुःखी । किन्तु कर्मफल पर पूर्ण आस्था रखने वाले लोग कहते हैं - कर्मफल में बिलम्ब होने के अपवाद अधिक नहीं, कम ही प्रतीत होते हैं । लोकव्यवहार में भी देखा जाता है, अधिकांश कर्मों के फल यथासमय मिल जाते हैं । जैसे - चिकित्सा, शिक्षा, कृषि, पशुपालन, शिशुपालन, व्यवसाय आदि अनेकानेक उपयोगी प्रवृत्तियाँ देर-सबेर से फल मिलेगा ही, इस निश्चितता के आधार पर चलती हैं। अगर कर्मफल पर विश्वास न होता तो जगत् में किसी को भी अपने स्वभाव, आचरण और व्यवहार को सुधारने की, अहिंसा-सत्यादि धर्मों का आचरण करने की, नीति, न्याय, सदाचार आदि के पालन की आवश्यकता न होती । साधना प्रारम्भ करते ही साध्य प्राप्त नहीं हो जाता । प्रत्येक महान् कार्य में समय तो लगता ही है । अतः यह तो कदापि नहीं सोचना चाहिए कि शुभ या अशुभ कर्मों का फल नहीं मिलता । रही देर की वात, वह कर्मों के परिपक्व होने पर निर्भर है । कर्मफल मिलने में बिलम्ब लगते देख धैर्य खो बैठना और तत्काल फल नहीं मिला तो कभी मिलेगा ही नहीं, यह मान बैठना बालबुद्धि का लक्षण है | कर्मफल में व्युत्क्रम क्यों ? इसके अतिरिक्त कई लोग नीतिमान, सदाचारी, सज्जन, धर्मात्मा और महापुरुषों का जीवन अत्यधिक अभाव पीड़ित, कष्टमय या दुःखी तथा पापियों, चोरों, अत्याचारियों, दुर्जनों आदि का जीवन अधिक सम्पन्न, सुखी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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