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कर्मवाद : आस्तिक्य का प्राण
आत्मा के साथ कर्म का सम्बन्ध कब से? सम्यग्दृष्टि आस्तिक पुरुष आत्म-साधना करने में प्रवृत्त होता है । तब बहुधा पूर्वकृत अशुभकर्मों के कारण उसकी साधना में अनेक विघ्नबाधाएँ उपस्थित होती हैं। कच्चा साधक घबरा उठता है । वह असंमजस में पड़ जाता है कि आखिर इतना पुरुषार्थ करते हए भी मुझे अपनी आत्मसाधना में सफलता क्यों नहीं मिलती? मेरी आत्मा बार-बार विषम-कषायादि या रागद्वषादि विकारों से क्यों पराजित हो जाती है ? ऐसे समय में कर्मवाद पर दृढ़ आस्था नहीं रखने वाला व्यक्ति आत्म-साधना से डगमगा जाता है । वह वर्तमान समय के अशुभकर्म फल को देखकर उसका सम्बन्ध अपने द्वारा पूर्वकृत या पूर्वजन्मों में अजित अशुभ कर्मों से है, यह भूल जाता है। साथ ही वह उन अशुभकर्मों के क्षय के लिये जो तप, ध्यान, स्वाध्याय, क्षमादि धर्म, महाव्रत आदि साधना करता था, उसे भी छोड़ बैठता है। किन्तु सम्यग्दृष्टि आस्तिक कर्मवाद में निष्ठा होने से यही सोचता
"स्वयं कृतं कर्म यवात्मना पुरा ।
फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् ।" 'जो शुभ या अशुभ कर्म अतीत में (पहले) आत्मा ने किये हैं, उन्हीं के शुभ-अशुभ फल वर्तमान में वह प्राप्त करता है।' इससे स्पष्ट हो जाता है कि आत्मा (जीव) के साथ कर्म का सम्बन्ध वर्तमान जीवन यात्रा से नहीं
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