Book Title: Saddha Param Dullaha
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 415
________________ २६४ | सद्धा परम दुल्लहा सम्बन्ध होना असम्भव नहीं है । लेकिन एक बात कर्मवादी को निश्चित रूप से समझ लेनी चाहिए कि व्यवहारनय की दृष्टि से चेतन का अचेतन पर और अचेतन का चेतन पर उपकार है। इस दृष्टि से कर्म और आत्मा (जड़ और चेतन) का सम्बन्ध तो हो सकता है, मगर वह संयोगकृत ही होगा, तादात्म्य-सम्बन्ध नहीं हो सकता। कर्मपुद्गल कभी चेतन नहीं हो सकते, और चेतन कभी कर्मपुद्गल नहीं हो सकता। दोनों का संयोगकृत या सम्बन्ध कृत परिवर्तन हो सकता है। चेतन कर्म पुद्गलों का निमित्त बनता है और कर्मपुद्गल चेतन के निमित्त बनते हैं। चेतन और कर्मपुद्गलों का अपना-अपना पृथक्-पृथक् उपादान है। एक के उपादान में दूसरा परिवर्तन नहीं ला सकता । परिवर्तन केवल निमित्तों का होता है । आत्मा (चेतन) के उपादान हैं -- ज्ञान, दर्शन, सूख और वीर्य। कर्मपुद्गल के उपादान हैं- वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श। कर्म चेतना (आत्मा) के उपादानों को यत्किचित् बदलने में निमित्त बन सकते हैं, इसी प्रकार आत्मा भी कर्मपुद्गलों के उपादानों को यत्किचित्-परिवर्तन में निमित्त बन सकती है । किसी के उपादान को दोनों में से कोई सर्वथा नष्ट नहीं कर सकता। अनेकान्तदृष्टि से आत्मा मूर्त्त भी है, अमूर्त भी । कर्म प्रवाहरूप से अनादि होने से संसारी जीव अनादिकाल से कर्मपरमाणुओं से बद्ध हैं। सोने पर लगे हुए मौल की भाँति प्रवाहरूप से वे कर्मपरमाणु आत्मा को आवत किये हए हैं। इस कारण संसारी आत्मा सर्वथा अमृत नहीं है, कर्मबद्ध होने से वह कथंचित् मूर्त्त भी है । संसारी आत्मा के प्रत्येक प्रदेश पर अनन्तानन्त कर्मवर्गणा के पुद्गल कार्मण शरीर के रूप में सदा चिपके रहते हैं। इसलिए कर्मबद्ध या कार्मणशरीरयुक्त मूर्त संसारी आत्मा के द्वारा ही नये कर्मपुद्गलों का ग्रहण होता है; कार्मणशरीर रहित सिद्धपरमात्मा सदैव सर्वथा अमूर्त होने से मूर्त कर्मपुद्गलों का ग्रहण या बन्ध नहीं करते । कर्मवादी कर्म और आत्मा के सम्बन्धों का रहस्य जानकर सम्बन्ध-मुक्त होने का पुरुषार्थ करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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