Book Title: Saddha Param Dullaha
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 414
________________ आस्तिक्य का तृतीय आधार : कर्मवाद | २६३ सकता । इसका यथार्थ समाधान यह है कि व्यक्तिरूप से कोई एक कर्म अनादि नहीं है, किन्तु वह प्रवाहरूप से, समष्टि की अपेक्षा से अनादि है । पुराने कर्म अपनी-अपनी स्थिति पूर्ण होने पर आत्मा से पृथक् होते जाते हैं और नये-नये कर्म बंधते जाते हैं । पुराने कर्मों का आत्मा से पृथक् होने का नाम 'निर्जरा' है और नये कर्मों का आत्मा से संयोग होने का नाम 'बन्ध' है । आशय यह है कि किसी एक कर्म-विशेष का सम्बन्ध आत्मा से साथ अनादि नहीं, किन्तु विभिन्न अनेक कर्मों का संयोग प्रवाहरूप से अनादि है । यह भी जान लेना चाहिए कि आत्मा के साथ कर्म का सम्बन्ध अनादि होते हुए भी अनन्त नहीं है, उसका अन्त आ सकता है । जैसे सोने और मिट्टी का सम्बन्ध अनादि होने पर मिट्टी मिले सोने को अग्नि में तपाने - गलाने पर मिट्टी से सोने का सम्बन्ध टूट जाता है, सोना शुद्ध स्वर्ण हो जाता है वैसे ही आत्मा और कर्म का सम्बन्ध अनादि होने पर भी तप, त्याग, संयम, महाव्रत, परीषहजय, रत्नत्रय आदि की साधना से उसे तोड़ा भी जा सकता है । मूर्त कर्मों का अमूर्त आत्मा के साथ बन्ध कैसे ? एक प्रश्न यह भी है कि कर्म-पुद्गल मूर्त्त हैं, और आत्मा अमूर्तअरूपी है, फिर अमूर्त आत्मा के साथ सू कर्मों का बन्ध कैसे हो सकता है ? जैसे वायु और अग्नि दोनों मूर्त हैं, इनका अमूर्त आकाश पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, उसी तरह मूर्त्त कर्म का अमूर्त आत्मा पर भी किसी प्रकार का प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए । परन्तु यहाँ कर्मों का अमूर्त आत्मा पर प्रभाव प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है । कर्मसिद्धान्तशास्त्री इसका समाधान यों करते हैं कि जिस प्रकार मद्य और विष दोनों मूर्त पदार्थ हैं, परन्तु मद्य या विष का सेवन कर लेने पर आत्मा का अमूर्त ज्ञानगुण प्रभावित होता देखा गया है । उसी प्रकार मूर्त कर्म अमूर्त्त आत्मा को अपने फल से प्रभावित कर देते हैं । इस दृष्टि से मूर्त कर्म-पुद्गलों के साथ अमूर्त आत्मा का बन्ध हो जाता है । दूसरी दृष्टि से देखें तो आकाश एक और अमूर्त्त है, उसके साथ प्रत्येक मूर्त्त ( दृश्यमान स्थूल) पदार्थ का सम्बन्ध होता है । जैसे - न्यायशास्त्र में घटाकाश (घड़े का आकाश ), मठाकाश ( मठ का आकाश ) आदि प्रसिद्ध हैं । आकाश एक असीम और अमूर्त है, किन्तु पदार्थों के संयोग से आकाश की कल्पित) सीमाएँ बना ली गई । इस दृष्टि से अमूर्त्त आत्मा का मूर्त्त कर्म के साथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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