Book Title: Saddha Param Dullaha
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 412
________________ आस्तिक्य का तृतीय आधार : कर्मवाद | २६१ कर्मवाद के गर्भ में कर्मवादी के गर्भ में कर्म से सम्बन्धित अनेक प्रश्न आते हैं, उनकी जानकारी कर्मवाद पर आस्था रखने वाले को होनी चाहिए । जैनदर्शन-सम्मत कर्म का लक्षण क्या है ? मूर्त कर्मों का अमूर्त आत्मा के साथ बन्धन कैसे और क्यों ? कर्म के भेद, कर्मों में फल देने की शक्ति, कर्म बलवान् है या आत्मा ? आत्मा कर्मों का कर्त्ता और भोक्ता क्यों, कैसे ? कर्मों का फल तत्काल क्यों नहीं मिलता? कितने काल तक कर्म अपना फल देते हैं ? कर्मों का बन्ध. उदय, उदीरणा और निर्जरा (क्षय) एवं सत्ता किन-किन कारणों से, कब और कितने समय तक होती है ? अशुभ कर्मों को शुभ में परिणत करने के उपाय क्या-क्या हैं ? ,इत्यादि कर्म-सम्बन्धी समस्त प्रश्नों का समाधान जानकर कर्म-क्षय का पुरुषार्थ करना कर्मवादो के लिए आवश्यक है। कर्म का लक्षण यों तो जगत् में क्रिया, व्यवहार, व्यवसाय, चेष्टा, धार्मिक व्रतादि, यज्ञादि कर्मकण्ड, वर्णाश्रमों का कर्तव्य, कर्ता द्वारा कृत व्यापार-फल का आधार, इन विभिन्न अर्थों में कर्म शब्द का प्रयोग होता है, किन्तु जैनदर्शन का कर्म शब्द इन सबसे विलक्षण एवं विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । देखिये कर्म-ग्रन्थ में कर्म का लक्षण--- कीरइ जीएण हेऊहिं जेणं तु भण्णए कम्मं । इसका भावार्थ यह है कि जीव अपनी शुभाशुभ शारीरिक, वाचिक एवं मानसिक क्रियाओं द्वारा. अथवा मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग इन कारणों से प्रेरित होकर राग-द्वेषवश जो प्रवृत्ति करता है. या उससे कर्मवर्गणा के जो पुद्गल आत्मा के साथ दूध और पानी की तरह एकमेक होकर लग जाते हैं, उन्हें 'कर्म' कहते हैं। पुद्गल द्रव्य की अनेक वर्गणाओं में से जो कर्मवर्गणा है, वही कर्मद्रव्य है। जीव (आत्मा) के असंख्यात आत्मप्रदेशों पर कर्मों के अनन्तअनन्त परमाणुओं का दल जमा हुआ है, उसे ही कर्मवर्गणा कहते हैं । कर्मवर्गणा समस्त लोक में सूक्ष्मरज के रूप में व्याप्त है। जैसे स्निग्ध (चिकने) पदार्थ पर शीघ्र ही धूल चिपक जाती है वैसे ही मिथ्यात्वादि पाँच कारणों से आकृष्ट होकर कर्मों के वे सूक्ष्म रजकण जीव के साथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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