Book Title: Saddha Param Dullaha
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 417
________________ २६६ | सद्धा परम दुल्लहा है, अपितु भूतकालिक जीवन यात्रा से है ! पूर्वकाल में मनुष्य ने जो भी अच्छा या बुरा कर्म किया है, उसका सम्बन्ध उसकी आत्मा से जुड़ जाता है। कर्मवाद पर दढ़निष्ठा रखने वाला व्यक्ति किसी के अमुक सुखद या दुःखद कर्मफल को समझने के लिए उस कर्मविपाक के भूतकालिक बीजकर्मबीज (कारण) का पता लगाता है। उसे कोई आश्चर्य नहीं होता है कि कोई व्यक्ति सामान्य जीवन जीता-जीता जब कोई असामान्य अवांछनीय कुकृत्य या असदाचरण कर बैठता है। वह यही सोचता है कि यह इसके वर्तमान जीवन का प्रतिफल नहीं, किन्तु इसके पिछले जीवन के कई पाप या कई जन्मों में कृत कर्मों का प्रतिफल है। प्रवत्ति अतीतकालीन है, परिणाम उसका वर्तमान काल में अभिव्यक्त हुआ है । अतः कर्मवादी दोनों का सम्बन्ध जोड़कर यह कहता है कि जो परिणाम आज दृश्यमान है, उनके पीछे भतकालीन शुभाशुभ कर्मजन्य प्रवृत्ति है। उसका मूलसूत्र है-आज की प्रवृत्ति अतीत का परिणाम और अतीत की प्रवृत्ति आज का परिणाम । कर्मवादी अतीत से विच्छिन्न करके वर्तमान की व्याख्या नहीं करता। कर्मफल पर पूर्ण श्रद्धा ही आस्तिकता का चिन्ह कई नास्तिक लोग कहते हैं कि अग्नि को छूते ही तत्काल हाथ जल जाता है, गहरे पानी में कूदते ही तुरन्त डूबने लगता है, मिर्च खाते ही मुंह जलता है; इत्यादि कर्मों का फल तत्काल मिल जाता है, तब पिछले जन्मों का कर्म-फल इस जन्म में इतनी देर से मिलता है, यह अटपटी बात समझ में नहीं आती। ___ कर्मवादियों का कहना है कि ऐसा एकान्त नियम नहीं है कि कर्म करते ही उसका फल तुरन्त मिल जाए । भूमि में बीज डालते ही तुरन्त वह अंकुरित नहीं हो जाता, न ही तुरन्त फल-फूल देने लगता है। आरोपित किये हए पौधे को वक्ष बनने और फलने में भी कई वर्ष लग जाते हैं। विद्यार्थी पाठशाला में प्रवेश पाते ही उसे तुरन्त विद्या प्राप्त नहीं हो जाती, न ही वह शीघ्र स्नातक बन पाता है। स्नातक बनने में उसे वर्षों का समय लग जाता है। कारखाना लगाते हो मालिक को तुरन्त लाभ नहीं मिलने लगता । काफी समय बाद पर्याप्त लाभ मिलता है। व्यापार करते ही व्यापारी तुरन्त मालामाल नहीं हो जाता। दण्ड-बैठक शुरू करते ही, कोई भीम या हनुमान-सा पहलवान नहीं बन जाता। प्रायः काफी समय तक अपथ्यसेवन करते रहने के पश्चात् शरीर अस्वस्थ और अशक्त बनता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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