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सम्यग्दृष्टि को परखने का दूसरा चिन्ह : संवेग | १८१
संवेग के आभ्यन्तर निमित्त
मोक्षाभिलाषारूप संवेग के आभ्यन्तर निमित्त ५ हैं - (१) संसार के स्वरूप का चिन्तन, (२) शरीर के स्वरूप का चिन्तन, (३) आत्मा के एकत्व का चिन्तन, (४) अपनी असहायता का चिन्तन और (५) आत्मा के अस्तित्व आदि छह स्थानों का चिन्तन । ये पाँच कारण मोक्ष की इच्छा उत्पन्न करते हैं । दूसरे शब्दों में इन्हें क्रमशः संसारभावना, अशुचि भावना, एकत्व भावना, अशरण भावना और सम्यक्त्व प्राप्ति के छह स्थान (कारण) कह सकते हैं ।
संसार के स्वरूप का चिन्तन करते हुए मुमुक्षु मानव सोचता है - मैंने अनादि काल से चार गति और चौरासी लक्ष जीवयोनि-रूप संसार में सुदीर्घ काल तक परिभ्रमण किया और जन्म- जरा वृद्धत्व एवं मरण की अपार वेदनाएँ सहीं तथा हर्ष - शोक, रति-अरति, अनुकूल-प्रतिकूल, इष्ट-अनिष्ट आदि परस्पर विरोधी द्वन्द्वों- विकल्पों में आकुल बना रहा । बचपन में अज्ञान से ग्रस्त रहा, यौवन में विवेकलुप्त हो गया और बुढ़ापे में दुर्बलता के कारण परवश हो गया, सम्पन्न - विपन्न दशा में भी विषयों की चाह में व्याकुल रहा, समस्त सम्बन्ध स्वार्थ से सने रहे। इस प्रकार संसार का सुख भी दुःखजनक रहा । संसार रसिक बनकर अधमता और अतृप्ति से आर्त्तध्यान- रौद्रध्यान के चक्कर में पड़कर नाना कर्मबन्धन करता रहा । कर्मों की विडम्बना के कारण ही संसार में परिभ्रमण हुआ । अतः अब मनुष्य जन्म मिला है तो मुझे अब भवभ्रमण के कारणों से दूर रहकर मोक्ष-सुख की साधना में संलग्न हो जाना है ।
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शरीर के विषय में भी मुमुक्ष, जीव चिन्तन करता है - यह मनुष्यदेह अशुचि से भरा है, अशुचि से उत्पन्न हुआ है, अशुचिमय है और अशुचि को ही उत्पन्न करता है । इसके स्पर्श से अन्य पदार्थ भी अपवित्र हो जाते हैं । फिर यह देह क्षणभंगुर है, शाश्वत नहीं है । देखते ही देखते बचपन और योवन बीतते ही बुढ़ापा आ घेरता है । शरीर इन्द्रियाँ आदि सब दुर्बल, अशक्त, रोगग्रस्त, चिन्ताग्रस्त एवं विकारग्रस्त हो जाते हैं । मनुष्य शरीर से कई कुटेवों, बुरी आदतों एवं खराब स्वभाव का शिकार हो जाता है | देह का सौन्दर्य, सुकुमारता, सौष्ठव, आदि भी मायाजाल है । इसे खिलातेपिलाते, सजाते, संवारते विविध प्रकार से पोषते हुए भी यह अकस्मात् धोखा दे देता है । रोगों का घर बन जाता है । इसे नष्ट होने में जरा भी देर नहीं लगती । चेतन आत्मा के साथ लगा होने के कारण मनुष्य जड़रूप
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