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सम्यग्दृष्टि का चौथा चिन्ह : अनुकम्पा | २०७
ऐसी सद्भावनापूर्वक यथामति यथाशक्ति इस दिशा में सच्चे अन्तःकरण से प्रयास करना--भाव-अनुकम्पा है। अथवा अमितगति श्रावकाचार के अनुसार
जन्माम्भोधौ कर्मणा भ्रम्यमाणे जीवनामे दुःखितेऽनेकभेदे ।
चित्ता त्वं यद् विधत्ते महात्मा तत्कारुण्यं दयते दर्शनीये ॥ अर्थात्-कर्मवश संसार समुद्र में भ्रमण करते हुए अनेक प्रकार के दुःखित जीवों को देखकर जो महान् आत्मा चित्त में आर्द्रता दयालुता धारण करता है, उसी को तत्ववेता दार्शनिक करुणा--भाव-अनुकम्पा कहते हैं।
___ अभिप्राय यह है कि कर्मों के कारण जन्म, जरा, मृत्यु, रोग आदि नानाविध दुखों को भोगते हुए, तथा चारों गतियों में भटकते हुए जीवों पर आत्मीयता लाकर जो दया पुरुष उन्हें सम्यक्बोध देता है, दुःखों से मुक्त होने का मार्ग बताता है, आत्मिक सुख प्राप्ति का उपाय बताता है उसकी इस सक्रिय आत्मौपम्य भावना को ज्ञानीपुरुष भाव-अनुकम्पा कहते हैं।
दूसरी ओर, जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं के अभाव में पीड़ित एव दुखित होते हुए आत्माओं को देखकर उनके प्रति अन्तर् में सहानुभूति पैदा होना और उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए यथाशक्ति प्रयत्न करना द्रव्य-अनुकम्पा है ।
यह स्मरण रहे-द्रव्य-अनुकम्पा के साथ भाव-अनुकम्पा होनो जरूरी है। भाव-अनुकम्पा में अनुकम्पा का तत्वज्ञान होता है। उससे हृदय में एकात्मभावना, हृदय को कोमलता, दयार्द्रता, संवेदनशीलता, आत्मवत् सर्वभूतेषु की भावना, समस्त प्राणियों में स्वतुल्य बुद्धि, सर्वात्मसमदृष्टि, एवं आत्मीयता, सहानुभूति आदि भी भाव-अनुकम्पा के अंग हैं। इसमें सर्वप्रथम आत्मा का तत्वज्ञान, फिर सर्वात्मकत्व भावना पनपती है।
यह ध्यान रहे कि स्वयं व्यक्ति यदि साधन सम्पन्न हो, अथवा दूसरों से साधन दिलाने की प्रभावशील क्षमता हो तो साधनहीन के प्रति द्रव्यअनुकम्पा के बिना सहानुभूतिशून्य या आत्मीयता की भावना से रहित अध्यात्म या वैराग्य का कोरा उपदेश दे देने में भाव-अनुकम्पा की इति
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