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२१० | सद्धा परम दुल्लहा
संसार के जीव, प्राण. भूत और सत्वों को आत्मवत् देखने की (पहले) वृत्ति होगी । आत्मवत् सर्वभूतेषु का भान होने पर वह किसी प्राणी को आपस में टकराएगा नहीं ( संघर्षित नहीं करेगा), न किसी को परिताप देगा, न ही हैरान-परेशान करेगा, भगाएगा-धमकाएगा भी नहीं और न ही किसी को दुःख कष्ट में डालेगा, न ही भयभीत करेगा 11
अनु धर्म है, सावद्य नहीं
इस प्रकार प्राणिमात्र के प्रति अनुकम्पा, करुणा, दया आदि आत्मवत् सर्वभूतेषु के भाव के कारण यह व्यवहार आस्रव रहित ( संवररूप) हो गया ।
अतः जो लोग पवित्र आत्मीय भावों से ओतप्रोत निःस्वार्थभाव से युक्त अनुकम्पा, दया आदि सद्धर्म (संवरधर्म ) रूप वस्तु को सावद्य कहते हैं, भ्रान्ति के शिकार हैं । भाव अनुकम्पायुक्त द्रव्यानुकम्पा कभी सावद्य नहीं हो सकती । अतः अनुकम्पा धर्म है, पाप सावद्य नहीं । दशवैकालिक सूत्र भो इस तथ्य का साक्षी है -
सव्वभूयप्प भूयस्स सम्मं भूयाइ पासओ । पिहिआसवस्स दंतस्स पावकमं न बंधइ ॥
'जो सर्वभूतात्मभूत है, प्राणीमात्र को समभाव से देखता है, जिसने आस्रव के आगमन के द्वार बंद कर दिये हैं उस शान्त-दान्त व्यक्ति के पापकर्म का बन्ध नहीं होता । यह अनुकम्पा का उत्कृष्ट व्यावहारिक रूप है, जो ज्ञान-दर्शन- चारित्रमय भाव अनुकम्पा से युक्त है ।
गृहस्थ जीवन में अनुकम्पा
चूँकि अनुकम्पा में सम्यग्दृष्टि सर्व जीवों को अपने तुल्य मानता है और एकेन्द्रिय जीवों के उपकार को भी याद करके स्वयं एकेन्द्रिय संयम या यतना रखता है । आवश्यकता के बिना पानी को एक बूंद भी व्यर्थ नहीं गिराता,
"गोमा ! 'पढमं नाणं तओ दया ।' दयाएव सव्वजगजीव पाण- भूय-सत्ताण अति समदरित्तिं । सव्वजगजीव पाण भूयसत्ताणं अत्त-सम दंसणाओ य तेसिं चेव संघट्टण - परियावण - किलामणोद्दावणाइ । ओ अणासवो...।"
- महानिशीथ सूत्र, अध्य० ३
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दुक्खुपायण-भय-विवज्जणं
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