Book Title: Saddha Param Dullaha
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 407
________________ २५६ ! सद्धा परम दुल्लहा चिन्तन उन्होंने नहीं किया है। कर्म के बदले में वेदान्तदर्शन माया या अविद्या का, वैशेषिक दर्शन अदृष्ट या संस्कार का, सांख्यदर्शन प्रकृति का तथा अन्य दर्शन वासना. आशय, अपूर्व या धर्माधर्म आदि में से किसी शब्द का प्रयोग करते हैं। कार्यकारणवाद के सन्दर्भ में कर्मवाद के स्थान में कई एकान्त कालवाद, कई स्वभाववाद, कई नियतिवाद, कई यदच्छावाद, कई देववाद और कई एकान्त पुरुषार्थवाद को मानते हैं । किन्तु कर्मवाद के समर्थकों ने इन पाँचों को एकान्त न मानकर कर्मवाद के साथ समन्वित 'पंचकरणसमवायवाद' प्रस्तुत किया है। कर्मवाद की उपयोगिता पूर्वोक्त प्रकृतिवाद, मायावाद या वासनावाद कर्मवाद की पूर्ति नहीं कर सकता । सांख्यदर्शन अचेतन प्रकृति को कर्म को कर्जी मानकर आत्मा को सर्वथा कर्मों का अकर्ता मानता है। किन्तु वह प्रकृतिगत संस्कार से आत्मा को भ्रान्तिवश कर्मफल-भोक्ता मानता है। यह अटपटा सिद्धान्त 'करे कोई, भरे कोई' की उक्ति को चरितार्थ करता है । मायावाद आत्मा को शुद्ध, निष्क्रिय, कूटस्थ नित्य एक स्वभाव मानता है, फिर आत्मा (ब्रह्म) के माया कैसे लग सकती है ? अतः वेदान्त की 'माया' निष्क्रिय ही सिद्ध होती है। वह भी कर्म का स्थान नहीं ले सकती। बौद्धदर्शन के एकान्त क्षणिकवाद के सिद्धान्त के कारण आत्मा पर कर्मस्थानीय वासना के कर्त त्व-भोक्तत्व की व्यवस्था घटित नहीं हो सकती। जगत् की विषमताओं और विचित्रताओं का यथार्थ समाधान पंचभूतों से जड़-चेतत सभी पदार्थों की उत्पत्ति मानने वाले पंचभूतवादियों के पास नहीं है। क्योंकि वे आत्मा, लोक-परलोक, धर्म-कर्म आदि बिलकुल नहीं मानते। ईश्वरकर्तृत्ववाद के अनुसार भी कर्मवाद की युक्तिपूर्वक संगति नहीं बैठती। इस सिद्धान्त के अनुसार संसार के जड़, चेतन समस्त पदार्थों का कर्ता, धर्ता, संहर्ता और नियामक ईश्वर को माना गया है। जीव को ईश्वर के हाथ की कठपुतली माना गया है । ईश्वर जैसा, जो, जब चाहता कालो सहाब णियई पुनकम्म पुरिसकारे णेगंता। मिच्छत्तं तं चेव उ, समासओ हुति सम्मत्तं ॥ -सन्मतितर्क प्रकरण ३/५/३ माया सती चेद् द्वयतत्व सिद्धिः, अथाऽसती हन्त कुत: प्रपंचः?- स्याद्वाद मंजरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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