Book Title: Saddha Param Dullaha
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 405
________________ २५४ | सद्धा परम दुल्लहा जगत् में इतनी विचित्रताएँ क्यों दृष्टिगोचर हो रही हैं ? एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों में, पंचेन्द्रियों में भी नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव इन चार प्रकार के जीवों के भी अगणित प्रकार हैं । एक मनुष्य को ही लें उसके भी १४ लाख जीवयोनियाँ हैं । मनुष्यों में आकृति, रूप, रंग, संहनन, संस्थान, सुख-दुःख, विकास - अविकास, आयु की न्यूनाधिकता, ज्ञान की अल्पाधिकता आदि के अन्तर पाये जाते हैं । इतनी विविधता, विचित्रता, और न्यूनाधिकता या विषमताओं का कोई न कोई कारण अवश्य होना चाहिए । अगर आत्मा ज्ञानस्वरूप है तो वह अज्ञानान्धकार से क्यों ग्रस्त होता है ? यदि आत्मा नित्य है तो वह नाना गतियों और योनियों में क्यों परिभ्रमण करता है ? यदि आत्मा अमूर्त्त है तो वह छोटे-बड़े, कुरूप सुरूप, स्वस्थ-अस्वस्थ, सुडौल - बडील मूर्त शरीरों में क्यों बद्ध है । जैनदर्शन इन सब प्रश्नों का समाधान यही करता है कि निश्चय दृष्टि से तो आत्मा शुद्ध, बुद्ध-ज्ञानस्वरूप, नित्य और अमूर्त ही है, किन्तु विश्व में एक ऐसा अदभुत बल है, जो इस शुद्ध, चिदानन्दमय, नित्य एवं स्वतंत्र आत्मा को विवश बनाकर नाना प्रकार के नाच नचा रहा है। वही प्रबल बल जीवों को चारगतियों और चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण कराता है । उसी प्रबल बल के कारण संसार में इतनी विविधता, विचित्रता एवं विषमता दृष्टिगोचर हो रही है । उस अद्भुत अदृश्य बल को जैनदर्शन 'कर्म' कहता है । सांसारिक जीवों की नानाविधता और पृथक्ता का मूल कारण यही कर्म है । आत्मा पर ये नाना उपाधियाँ कर्म के कारण ही होती हैं । आत्मा के ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व, चारित्र, दानादि विविध शक्तियों पर जो आवरण-आच्छादन आ जाते हैं, या प्राप्त होने में जो विघ्न-बाधाएँ उपस्थित होती हैं, उन सबका कारण और कोई नहीं, विभिन्न प्रकृति के कर्म ही हैं । कर्मवाद को माने बिना पूर्वजन्म-पुनर्जन्म पूर्वजन्मों की स्मृति, जन्मजन्मान्तर, तथा इहलोक - परलोक का परम्परागत सम्बन्ध एवं इहलोक में शुभकर्म किये बिना ही अकस्मात् विषय-सुख भोगों की सामग्री की प्राप्ति, अथवा अशुभकर्म किये बिना ही अकस्मात् इष्टवियोग एवं अनिष्टसंयोग की या दुःखों कष्टों की प्राप्ति कथमपि घटित नहीं हो सकती । १ कम्पओ णं जीवे विभत्तिभावं परिणमई णो अकम्मओ । २ कम्मुणा उवाही जायइ । Jain Education International For Private & Personal Use Only - भगवती १२ / १२० - आचारांग १/३/१ www.jainelibrary.org

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