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२३४ | सद्धा परम दुल्लहा
लोकगत द्रव्यों में से किसका कितना अवलम्बन लेना आवश्यक है ? नरकाद चारों गतिरूप चारों लोकों में उत्पन्न होने तथा जन्म-मरण करने के क्याक्या कारण हैं ? प्रस्तुत चारों लोकों में गमनागमन न करना पड़े, लोकावलम्बन न लेना पड़े, तथा लोकगत प्राणियों से अमुक सहयोग लिया है, लेता आ रहा हूँ, और लूँगा, उनके ऋण से मुक्त होने के लिए कौन-सा श्रेष्ठ उपाय है। त्याग, संयम, तप, परीषहजय, कषायविजय, सर्वकर्मक्षयरूप मोक्ष, ज्ञानादि रत्नत्रय की साधना किस लोक में हो सकती है ? उस लोक
साधक को किन-किन बाधक करणों से आत्मरक्षा करनी चाहिए । लोक वाद का आस्तिक्य से क्या सम्बन्ध है ? इत्यादि सब बातों का जानना भी आवश्यक है ।
लोकवाद मानना क्यों आवश्यक ?
जिनोक्त दृष्टि से लोक का ज्ञान न होने से मनुष्य लोक में रहकर भी श्रुत चारित्ररूप धर्म या रत्नत्रय रूप धर्म के आचरण में पुरुषार्थ नहीं कर पाता । वह स्वयं पुरुषार्थ न करके ईश्वर, ब्रह्मा, देवी-देव या किसी अदृश्य शक्ति के हाथ का खिलौना बन जाता है । इस लोक में ही पूर्वकृत कर्मों को क्षय करने का शुभ अवसर है, इस विषय का भान न होने से व्यक्ति रत्नत्रय की साधना से या तो विमुख हो जाता है या प्रमादी बन जाता है । इसलिए लोकवाद को मानना जानना बहुत ही आवश्यक है ।
यह सिद्धान्त है कि किसी भी लोक में जन्म-मरण स्वकृत कर्मों के कारण होता । कर्म करने और उसका फल भोगने वाला जीव स्वयं ही है । इसलिए साधक लोकवाद से यह प्रेरणा लेता है कि 'मुझे अब लोक में भ्रमण नहीं करना है, अपितु ऐसा पुरुषार्थ करना चाहिए जिससे लोकाग्र में स्थिर होकर मोक्ष का अनन्त सुख प्राप्त कर सकूँ ।' तथा लोक का स्वरूप क्या है ? उसमें मेरा ( मनुष्य का ) क्या स्थान है ? क्या कर्तव्य है ? क्याक्या दायित्व हैं ? लोक में मेरे सिवाय जो प्राणी हैं, उनके साथ तथा लोक के पदार्थों के प्रति मुझे कितना और कैसा सम्बन्ध रखना चाहिए ? इसलिए लोकवाद को आस्तिक्य का आधार माना गया है ।
लोकवाद को मानने से इहलोक - परलोक अथवा ऊर्ध्वलोक-अधोलोकमध्यलोक में या नरकादि चारों लोकों में जन्म-मरण के कारणों का ज्ञान होता है । इन लोकों में परिभ्रमण के कारणों पर विचार करते रहने से लोकवादी की आस्था धर्माचरण के प्रति सुदृढ़ होती है और वह आत्मा को
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