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आस्तिक्य का द्वितीय आधार : लोकवाद ! २४७
दुःख, जीवन-मरण आदि। इसके अतिरिक्त शब्द, बन्ध, सौम्य, स्थौल्य, संस्थान, भेद, तप, छाया, आतप और उद्योत ये सभी पुद्गलों के कार्य हैं ---- परिणाम हैं। जो जीवों के लिये प्रायः सहयोगी बनते हैं। इस प्रकार पुद्गल जीवों के प्रति अनुग्रह-निग्रह करने में भी निमित्त बनते हैं। वस्तुतः पुद्गल और संसारी (कर्म-बद्ध) जीवों का अविच्छेद्य सम्बन्ध है। पुद्गल के बिना कोई भी संसारी जीव, फिर भले ही वह साधु हो, आचार्य, उपाध्याय, या तीर्थकर अथवा केवलज्ञानी भी क्यों न हो, रह नहीं सकता।
छह द्रव्यों का परस्पर उपकारकत्व-यों तो प्रत्येक द्रव्य अपनेअपने स्वभाव में स्थित है, किन्तु छहों द्रव्य परस्पर उपकारी और सहयोगी बनते हैं । जैन दर्शन के अनुसार यह विश्व छह द्रव्यों का समुदाय है। इन छह द्रव्यों का परस्पर सह-अस्तित्व है। संघर्ष नहीं। क्योंकि पूर्व कथनानुसार ये छहों द्रव्य विश्व की व्यवस्था में तथा आध्यात्मिक दृष्टि से भी किसी न किसी प्रकार से परस्पर सहयोगी या उपयोगी बनते हैं।
क्षेत्रलोक
लोक कितना बड़ा है ? द्रव्यलोक का परिचय देने के बाद क्षेत्रलोक की अपेक्षा से लोक का विचार किया गया है। लोक कितना बड़ा है ? इसके उत्तर में प्रभु महावीर ने बताया--"गौतम ! यह लोक बहुत बड़ा है । यह पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण तथा ऊर्ध्व एवं अधो-दिशाओं में असंख्यात योजन कोटाकोटी लम्बाचौड़ा है। वैसे भगवती सूत्र में एक रूपक द्वारा भी लोक की मोटाई (सात रज्जु परिमित) बतायी गयी है। समग्र लोक चौदह रज्जू परिमाण है। लोकाकाश के तीन विभाग हैं-ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोक । इन तीनों लोकों की ऊँचाई १४ रज्जू है। जिसमें से सात रज्जू से कुछ कम ऊध्वलोक है, मध्यलोक १८०० योजन-परिमित है, और अधोलोक सात रज्जू से कुछ अधिक है। तीनों लोकों की आकृतियाँ (संस्थान) पृथक-पृथक हैं। ऊर्ध्वलोक में धर्म-अधर्मास्तिकाय विस्तृत होते चले गये हैं। इसलिए ऊर्ध्व
१. (क) शरीर-वाङमनः प्राणापनाः पुद्गलानाम् ।
-तत्त्वार्थ ५/१६ (ख) सुख दुःख-जीवित मरणोपग्रहश्च ॥२०॥
-तत्त्वार्थ अ.५ २. शब्द-बन्ध-सोक्षम्य-स्थौल्य-संस्थान-भेद-तमश्छायाऽऽतपोद्योतवन्तश्च ॥२१॥
-तत्त्वार्थ ५ अ. ३ भगवती सूत्र १२।७।४५७ तथा १२।१०।४२१ वृत्ति ।
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