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२३२ | सद्धा परम दुल्लहा
परमात्मा प्रत्यक्ष न दिखाई पड़ने से उनके अस्तित्व पर शंका करने का कोई भी वास्तविक कारण सिद्ध नहीं हो पाता। परमात्मा के प्रति उत्कृष्ट आस्था से लाभ
जो साधक तीव्रता से अपनी श्रद्धा-भक्ति, विश्वास एवं अनन्यनिष्ठा द्वारा अपनी मलिनताएँ आत्मशक्ति पाकर हटा लेता है, और परमात्मा को अपने हृदय में विराजमान कर लेता है, उस पर परमात्मा की महान शक्ति का अनुग्रह बरसता रहता है । बड़े से बड़े संकट, विपत्ति और भय के समय भी उसके हृदय में परमात्मश्रद्धा, आशा, उत्साह एवं तादात्म्य का संचार होता रहता है। निराशा और अप्रसन्नता की आंधी उसे छू नहीं पाती। अपने हृदय से काम, क्रोध, लोभ, ईर्ष्या, मान-सम्मान यशकीतिलालसा आदि विकारों को हटाकर जो केवल परमात्मा के निवास और आराधना के लिए स्थान रखता है, वह हर हालत में स्वस्थ, प्रसन्न एवं साधनारत, रहता है। वह परीषहों और उपसर्गों से घबराता नहीं। उसी के पवित्र निर्मल, निविकार एवं निरुद्विग्न, अविचल हृदय में परमात्मा का सन्देश-आदेश पहँचता है उसी हृदय में परमात्मा अभिव्यक्त होता है । परमात्मा से भावात्मक समीपता उसी हृदय में हो सकती है । परमात्मा के साथ भावात्मक समोपता से ही साधक उनके विशिष्ट गुणों से लाभान्वित हो सकता है तथा जितना-जितना भावात्मक सामोप्य या तादात्म्य वह साध लेगा, आराध्यदेवाधिदेव की शक्तियाँ, क्षमताएँ और सामर्थ्य उसो अनुपात में उसके अन्दर आती जाएँगी । शीत के कष्ट से थर-थर कांपते हुए व्यक्ति के लिए जैसे अग्नि की निकटता उपयोगी होती है, वैसे ही वीतराग परमात्मा के साथ जितनी भावात्मक निकटता होगी, उतना ही वह साधक उनके प्रकाश से प्रकाशित होता रहेगा, उसमें दुर्गुणों, परभावों या अज्ञान का अन्धकार भाग जाएगा। यही परमात्मा के प्रति उत्कृष्ट आस्था का लाभ है जो आत्मवाद को जानते और मानने से प्राप्त होता है।
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