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२३० | सद्धा परम दुल्लहा
भावना के कारण वह इस मान्यता को लेकर चलता है कि जैसी मेरी आत्मा है, वैसी ही दूसरे की है । मुझे कांटा चुभोने पर जैसी पीड़ा होती है, वैसी ही पीड़ा दूसरे प्राणियों को होती है । अतः आत्मवादी परिवार से लेकर विश्व के प्रति आत्मीयता - आत्मौपम्य का भाव रखता है, वह किसी भी प्राणी को दबाता सताता, मारता या धमकाता नहीं। उसकी आत्मा में विश्ववत्सल जगत् पितामह भगवान् महावीर की आत्मौपम्य के परिप्रेक्ष्य में कही हुई यह वाणी अंकित हो जाएगी -
तुमसि नाम तं चैव जं हंतव्वं हि मयति । तुमसि णाम तं चैव जं अज्जवियध्वं ति मण्णति । तुमंमगाम तं चैव जं परितावेयव्वं ति मध्णसि । तुमसि णाम तं चैव चं परिघतव्वं ति मण्णनि ।
तुमंसि णाम तं देव, जं उवेति मण्णसि ॥ १७० ॥
इसका भावार्थ यह है "तू वही है, जिसे तू हनन करने योग्य मानता
है; तू वही है, जिसे तू अपने हुक्म में बलात् चलाना - गुलाम बनाना चाहता है; तू वही है, जिसे तू परिताप देता चाहता है, तू वही है जिसे तू दास बनाने हेतु ग्रहण करना या कैद में रखना चाहता है; तू वही है, जिसे तू डरानाधमकाना या मारना पीटना चाहता है ।"
स्वरूप की दृष्टि से संसार की सभी आत्माएँ एक समान हैं, ऐसी उत्कृष्ट आस्था में ही आत्मवाद के बीज छिपे हैं। इस सूत्र के अनुसार आत्मवादी अपने निमित्त से दूसरों को जरा-सा भी दुःख, कष्ट या पीड़ा देने से हिचकिचाता है । दूसरे की किसी भी प्रकार की हिंसा की जाने पर जैसी उसको अनुभूति होती है, वैसी ही अनुभूति आत्मवादी को होती है। उसकी रग-रग में यह आस्था सुखरित होती है कि दूसरे का कष्ट मेरा कष्ट है । वस्तुतः दूसरे को दुःख देना अशुभ कर्मबन्ध करके अपनी आत्मा (स्वयं) को दुःख में डालना है । भगवान् महावीर ने आत्मवादी के इस सिद्धान्त को स्वयं अनुभव करके व्यवहार्य बना दिया । आत्मवादी के इसी लक्षण को भगवान् महावीर ने स्पष्टतः बताया है
जे एवं जाणइ से सव्वं जागइ !
जो एक आत्मा को जानता है, वह सभी आत्माओं को जानता है । इसका तात्पर्य यह है कि जो अपनी आत्म के सुख-दुःख, हित-अहित आदि
१ आचारांग श्रु. १, अ ५, उ. ५, सु. १७०
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