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आस्तिक्य का मूल : आत्मवाद | २१६
मृत शरीर में वायु भरी होने पर भी सांस बाहर क्यों नहीं निकलती ? क्यों कि मृत शरीर में प्राण-संचार नहीं है, श्वास-प्रश्वास-प्रणाली यथावत् रहने पर भी प्राण स्पन्दन मृत शरीर में नहीं होता, इसका कारण है-आत्मा मत शरीर में नहीं है। निष्कर्ष यह है कि अंगों की स्थिति यथावत् रहते हए भी उक्त 'महाप्राण' के मृत शरीर में न रहने से वह जड़वत् निश्चेष्ट हो जाता है । इस प्राण-संचालक महाप्राण को ही 'आत्मा' कहते हैं।
तीसरा प्रश्न है.--वाणी का अभीष्ट बोलना मुख, शरीर, एवं जीभ आदि इन्द्रियों का नहीं है। वाणी से कड़वे शब्द बोलना इष्ट हो तब कड़वे और मीठे शब्द बोलना अभीष्ट हो, तब मधुर शब्द बोला जाता है । वह बोलाने वाला कौन है ? यदि वाणी स्वतन्त्र एवं स्वतःप्रेरित बोलती तो वह तोते की तरह अभ्यस्त शब्दों के सिवाय और किसी शब्द का उच्चारण न करती । अतः तथ्य यह है कि वाणी से अभीष्ट अमृतमय या विषमय शब्द निकालने वाली अन्तःचेतना उससे पृथक् और स्वतन्त्र है, जिसका नामआत्मा है।
चौथा प्रश्न है -आँखें किसकी प्रेरणा से देखती हैं ? कान किसकी प्रेरणा से इच्छानुसार सुनते हैं ? इसका उत्तर भी वही है-जिसकी प्रेरणा से आँख और कान सक्रिय रहते हैं, बह सत्ता 'आत्मा' की ही है। अन्यथा, यदि आँखों में स्वतन्त्र देखने की या कानों में स्वतन्त्र सुनने की शक्ति होती तो मृत या मूच्छित स्थिति में भी आँखें देखतों और कान सुनते । परन्तु निश्चित है कि ऐसा होता नहीं है । इसके अतिरिक्त ध्यानमग्न होने या अन्यमनस्क होने की स्थिति में आँखों के आगे से गुजरने वाले दश्य भी दृष्टिगोचर नहीं होते और कानों के समीप ही बातचीत होते या बोलते रहने पर भी कुछ सुना नहीं जाता । अनेक दृश्यों में से आँखें जिस पर केन्द्रित होती हैं, उसी को देखती हैं, तथा कई तरह की आवाजें होती रहने पर भी कान स्वयं को प्रिय या अभीष्ट शब्द पर ही केन्द्रित होते हैं, उसी को वे सुनते हैं, जिस शब्द पर वे केन्द्रित होते हैं।
दूसरे मन्त्र में उपनिषद् के ऋषि ने पूर्वोक्त प्रश्नों का यही (उपर्युक्त) समुचित उत्तर दिया है । मन में मनन करने की, प्राण में संचालन की, वाणी में बोलने की, आँखों में देखने की एवं कानों में सुनने की जो शक्ति है, वह उसी 'आत्मा' की हैं।
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