Book Title: Saddha Param Dullaha
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

View full book text
Previous | Next

Page 366
________________ आस्तिक्य का मूल : आत्मवाद | २१५ को जीवन में चरितार्थ करने के लिए इन चारों वादों को अपनाना, तथा इनके यथार्थ स्वरूप और अस्तित्व को मानना अनिवार्य है। आत्मवाद : उत्कृष्ट आस्था का मूल इन चारों में आत्मवाद आस्तिक्य-वक्ष का मूल है, जबकि लोकवाद, कर्मवाद और क्रियावाद क्रमशः स्कन्ध, शाखा और फल हैं । चूँकि आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व और यथार्थ स्वरूप को मानना आत्मवाद है, इसलिए शेष वाद आत्मा से ही सम्बद्ध हैं। धर्म, दर्शन, कर्म, कर्मफल, बन्ध-मोक्ष आदि का मूल आधार आत्मा है। यदि आत्मा है तो वह चेतन होने से जड़ (अजीव) से पृथक् है। वह कर्मों से बद्ध होकर विभिन्न लोकों में, गतियों-योनियों में भ्रमण करती है । उसका पुनर्जन्म भी है । वह स्वर्ग, नरक, तिर्यंच और मनुष्य आदि परलोक में भी अपने शुभाशुभ कर्मानुसार जाती है। और यदि आत्मा कर्म का कर्ता है तो भोक्ता भी है । कर्म से वद्ध है तो वह संवर-निर्जरारूप धर्म या सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप धर्म एवं तप-संयम के आचरण से आत्मविशुद्धि करके कर्मों से सर्वथा मुक्त परमात्मा भी हो सकता है। आत्मवादी की आत्मा के निजी गुणों-ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, सुख, वीर्य आदि पर तथा चारित्र से सम्बद्ध अहिंसा, सत्य आदि सिद्धान्तों पर अटूट आस्था होने से कर्मों से मुक्त होने के ये उपाय भी हैं। निष्कर्ष यह है कि आत्मवाद को मानने के साथ वह आत्मा से सम्बन्धित पुनर्जन्म, लोक-परलोक (स्वर्ग-नरक आदि) तथा पुण्य-पाप कर्म और कर्मफल एवं ज्ञानादि रत्नत्रयमय सद्धर्माचरण रूप मुक्ति के उपाय से आत्मा की मुक्ति इत्यादि सभी बातें आत्मवाद के अन्तर्गत आ जाती हैं। __इसीलिए श्रमण भगवान् महावीर ने भव्य जीवों को उत्कृष्ट आस्थावान् बनने हेतु कहा-जीव, अजीव, लोक-अलोक, धर्म-अधर्म, पुण्य-पाप, बन्ध-मोक्ष, क्रिया-अक्रिया नहीं है, ऐसी संज्ञा (मान्यता) मत रखो, किन्तु ये सब हैं, ऐसी संज्ञा रखो।" आत्मवाद की पहचान आत्मवादी की सर्वप्रथम पहचान यही है कि वह आत्मा से सम्बद्ध छह बातों पर पूर्ण आस्था रखता है-(१) आत्मा है, उसका अस्तित्व, स्वसंवेदन, अनुमान, आगम आदि प्रमाणों द्वारा सिद्ध है, वह ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य से सम्पन्न है । (२) वह परिणामी नित्य है, (३) वह अपने कर्मों १. सूत्रकृतांग २/५/१२-१६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444