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सम्यग्दृष्टि का चौथा चिन्ह : अनुकम्पा | २०३
वस्तुओं का संग्रह करके दूसरों को संकट में डालेगा ? व्यक्ति जब दूसरों को अपना समझ लेता है, तब क्या स्वयं ही स्वयं को धोखा देगा । एक हाथ दूसरे हाथ को मारेगा... पीटेगा? इसी 'आत्मीय भावना --आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भावना को तात्विक दृष्टि से समझाने के लिए श्रमण भगवान् महावीर ने आचारांग सूत्र में स्पष्ट कहा है
तमंसि नाम सच्चेव, जं 'हतन्वं' ति मन्नसि । तमंसि नाम सच्चेव, जं 'अज्जावेयन्वं' ति मन्नसि । तमंसि नाम सच्चेव, जं 'परितावेयवं' ति मनसि । तमंसि नाम सच्चेव, जं 'परिघेतवं' ति मनसि । तुमंसि नाम सच्चेव, जं 'उद्देवेयन्वं' ति मन्नसि ।
--आचारांग ११५१५ अर्थात्- "तुम वही हो, जिसे तुम मारना है, ऐसा समझते हो। तुम वही हो, जिसे तुम सताना है ऐसा मानते हो। तुम वही हो, जिसे तुम परिताप देना चाहते हो। तुम वही हो, जिसे तुम गुलाम बनाकर या कैद करके रखना चाहते हो। तुम वही हो, जिसे तुम डराना-धमकाना चाहते हो।"
इससे स्पष्ट है, जो दूसरों को सताना-मारना या दुःखी करना चाहता है, वह अपने आप को सताता-मारता या दुःखी करता है। इसका तात्पर्य यह भी है कि जो दूसरों को सताता, मारता-पीटता या त्रास देता है, उसके कारण हुए घोर पाप कर्म के बन्ध के कारण स्वयं को ही उसके फलभोग के समय उतना ही नहीं बल्कि उससे भी अधिक त्रस्त, संतप्त एवं दुःखी होना पड़ता है।
निष्कर्ष यह है कि अहिंसादि धर्म का प्रारम्भ दूसरों के सुख-दुःख का भान, पर-पीड़ात्याग, अथवा दुःखी मात्र के प्रति अत्यन्त दया-अनुकम्पा, गुणीजनों के प्रति अद्वेष, और सर्वत्र औचित्यपूर्वक व्यवहार से होता है । परार्थ भावना के बीजारोपण से हो धर्म का श्रीगणेश होता है। जब
कहा भी है
जह मम न पियं दुक्खं, जाणिय एमेव सधजीवाणं जैसे मुझे अपना दुःख प्रिय नहीं है, इसी प्रकार सभी जीवों को अपना दुःख प्रिय नहीं है, ऐसा समझो।
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