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सम्यग्दृष्टि का तीसरा चिन्ह : निर्वेद | १९७
भक्ति में ही अपना सारा जीवन लगा दिया। गोस्वामी तुलसीदासजी 'राम चरितमानस' के कारण विख्यात हो गए। यह है - मोहगर्भित वैराग्य का ज्वलन्त उदाहरण !
स्वयं गोस्वामी तुलसीदासजी ने इस वैराग्य के सम्बन्ध में कहा है
नारी मुई घर सम्पत नासी । मूंड मुंडाय मधे संन्यासी ॥
कई बार व्यक्ति आवेश या उत्साह में आकर पत्नी को छोड़कर गृहत्यागी साधु बन जाता है, किन्तु मोहकर्म के उदय से पुनः स्त्रीमोह जाग जाता है । ऐसा वैराग्य भी मोहगर्भित ही है ।
भवदेव मुनि दीक्षा लेने के बाद पहली ही बार गाँव में पधारे थे । उनके छोटे भाई भावदेव की शादी हुए अभी थोड़े ही दिन हुए थे । उसकी पत्नी नागिला बहुत ही समझदार और विवेकी श्राविका थी । भवदेव मुनि का प्रवचन सुना और विहार के समय काफी दूर तक भावदेव पहुँचाने गया । भवदेवमुनि के उपदेश से तथा साधु जीवन में सम्मान, पूजा-प्रतिष्ठा, और सरस स्वादिष्ट खानपान की सुविधा आदि के लालच में आकर वैराग्य रंग लगा । दीक्षा लेने की इच्छा हुई । नागिला को जब भावदेव ने यह बात कही तो उसने समझाया- "दीक्षा लेना बुरा नहीं है । परन्तु आपकी प्रकृति देखते हुए मुझे आपके वैराग्य का रंग कच्चा लगता है ।" परन्तु भावदेव दीक्षा लेने की स्वीकृति दे चुके थे । अतः सुनी-अनसुनी करके दीक्षा ले ली । मगर जैन साधु की कठोर क्रियाओं और परीषहों को देखकर भावदेव मुनि घबरा गए । उनका वैराग्य का रंगधुल गया। सोचा- घर ही चला जाऊँ ! बेचारी नागिला मेरे बिना निराधार हो गई होगी । उसको भी प्रसन्न करूँ और मैं भी सुख से रहूँ । इस विचार से भावदेव मुनि घर की ओर लौटे । परन्तु नागिला ने तो घर में रहकर भी सादगी, तपस्या, त्याग एवं संयम का पथ अपना लिया था । दूर से ही भावदेव मुनि को आते देख वह समझ गई । जब भावदेव मुनि ने गृहस्थ जीवन में प्रवेश की बात कही तो उसने कहा" मैंने घर में रहते हुए ही शील और संयम का पथ अपना लिया है । आप इस घर में अब रह नहीं सकते। अतः आप गुरु की सेवा में जाइए । उत्तम चारित्र रत्न को खोकर आप क्यों वासना के दलदल में फँसकर संसार पारिभ्रमण का मार्ग अपना रहे हैं ? आप गुरुजी से प्रायश्चित्त लेकर अपने संयम में पुनः स्थिर हो जाएँ ।” नागिला की वैराग्यपूर्ण वाणी का भावदेवमुनि के
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