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१६० | सद्धा परम दुल्लहा
उससे नहीं जोड़ता। निर्वेदी साधक आत्मा के लिए अहितकर स्वपर अकल्याणकारी शब्दों को सुनना ही नहीं चाहता, अथवा ऐसे शब्दों के प्रति उसकी अरुचि, उदासीनता या विरक्ति होती है। वह उन अश्लील कामोत्पादक शब्दों के प्रति विरक्त रहता है, रागवर्द्धक या मोहवर्द्धक शब्दों के प्रति अर्थात्-प्रशंसात्मक शब्दों के प्रति अनासक्त हो जाता है । परन्तु स्वपरहितकर शब्दों को अवश्य सुनता है।
यही बात रस-विषय के उपभोग के सम्बन्ध में निर्वेदी की समझिए। मनोज्ञ या अमनोज्ञ सरस या नीरस, स्वादिष्ट या अस्वादिष्ट रस को पाकर वह राग या द्वष का भाव मन में उत्पन्न नहीं होने देता। अथवा ऐसी अहितकर खाद्य-पेय सामग्री के सेवन का त्याग भी कर देता है, जो स्वास्थ्य को चौपट करने वाली, कामोत्तेजक, मादक या जिह्वालोलुपता को उत्तेजित करने वाली हो । स्वादिष्ट पदार्थ का सेवन करते समय भी वह मन में रागभाव या आसक्ति नहीं लाता । अस्वादिष्ट या नीरस वस्तु पाने पर भी वह अनासक्त भाव-समभाव से उसका सेवन करता है। स्वाद के लिए मनुष्य अधिक खाकर या दूसरों के हक का खाकर अपना और पर का अकल्याण करता है, निर्वेदी इससे बचकर रहता है। वह सरस-स्वादिष्ट वस्तु का सेवन भी अनिच्छा या अनासक्तभाव से करता है।
इसी प्रकार गन्धविषय के प्रति भी निर्वेदी का यही दृष्टिकोण रहता है। वह कामविकारवर्द्धक, आसक्ति पोषक मनोज्ञ सुगन्ध का या तो त्याग करता है, अथवा गन्धी आदि की दुकान या किसी मकान से आती हुई मनोज्ञ सुगन्ध नाक में पड़ जाए तो वह अनिच्छा से अनासक्त भाव से ग्रहण करता है । खाद्य या पेय वस्तु की मनोज्ञ सुगन्ध पाकर भी वह उसमें राग, मोह या मूर्छा नहीं करता। तथा दुर्गन्ध (बदबू) से पूर्ण वस्तु या दुर्गन्ध पाकर उससे घृणा, द्वेष नहीं करता ।
__ रूप के विषय में भी निर्वेदी का यही विरक्ति भाव या रागद्वेषपरित्यागात्मक भाव या अनासक्त भाव रहता है । किसी नारी के सौन्दर्य एवं रूप को वह ताक-ताक कर चाहभरी दृष्टि ने नहीं देखता, कदाचित दृष्टि पड़ जाए तो विरक्ति भाव धारण कर लेता है । मनोज्ञ रूप के प्रति या राग मोह और अमनोज्ञ रूप (कुरूप) वस्तु या व्यक्ति के प्रति द्वेष या घृणा नहीं करता।
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