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सम्यग्दृष्टि का तीसरा चिन्ह : निर्वेद | १६१
स्पर्शेन्द्रिय-विषय तो अन्य सभी इन्द्रिय विषयों से प्रबल है। इसका फलितार्थ है-काम-भोग । सांसारिक कामभोगों का या तो निर्वेदी सर्वथा त्याग करता है, या वह गृहस्थ जीवन में रहता हुआ कामभोगों के प्रति अलोलुप, अनासक्त या विरक्त रहता है । कामभोगों की लालसा या तृष्णा साधक के निर्वेदभाव को समाप्त कर देती है। वह ऐसी आग है, जो ईंधन देने से, कामेन्द्रिय को खुल्ली छूट देने से कभी तृप्त नहीं होती, बल्कि अधिकाधिक बढ़ती है। क्या साधु और क्या गृहस्थ, कामभोगों के चक्कर में पड़ कर अपने अमूल्य मानव जीवन को सभी प्रकार से बर्बाद कर देता है।
निर्वेद-प्राप्त मानव विषयों के सेवन में सुख नहीं मानता, विषयों में सुख की तलाश नहीं करता। उन्हें जन्म-मरणरूप संसारचक्र में परिभ्रमण कराने वाला मानता है। यही सम्यग्दृष्टि मानव के निर्वेद का व्यावहारिक रूप है।
निर्वेद : कच्चा या सच्चा ? निर्वेद और घृणा में काफी अन्तर है । किसी वस्तु से घृणा हो जाना निर्वेद नहीं है । अनिष्ट था प्रतिकूल वस्तु, क्षेत्र, काल एवं व्यक्ति अथवा परिस्थिति आदि के प्रति मनुष्य को घृणा हो जाती है, उस समय साधारण लोग कह दिया करते हैं-- इसे अमुक वस्तु या व्यक्ति से विरक्ति हो गई। परन्तु ऐसी घृणा-मूलक विरक्ति या उदासीनता (निर्विण्णता) को वास्तविक निर्वेद नहीं कहते । यथार्थ निर्वेद का क्रम दशवैकालिक सूत्र में इस प्रकार बताया है--'साधक पहले जीव और अजीव को जानता है । जीव-अजीव का यथार्थ ज्ञाता साधक समस्त जीवों की बहविध गतियों को जान लेता है। इसके पश्चात् वह पुण्य, पाप बन्ध और मोक्ष तथा इनके कारणों को जान लेता है । इनके कारणों को जानने पर उस साधक को दिव्य और मानुष भोगों के प्रति निर्वेद हो जाता है ।1
१. जीवाजीवे वियाणंतो सो हु नाहिउ संजमं ॥१३॥
जया जीवमजीवे य दोवि एए वियाणइ । तया गई वहुविहं सव्व जीवाण जाणइ ॥१४॥ जया गई बहुविहं सव्वजीवाण जाणइ । तया पुण्णं च पावं च बन्ध मोक्ख च जाणइ ॥१५॥ जया पुण्णं च पावं च बन्ध मोक्खं च जाणइ । तया निविदए भोए जे दिवे जे य माणुसे ॥१६॥
- दशवै० अ०४ गा० १३ से १६
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