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श्रमण संस्कृति का तृतीय मूलमन्त्र : सम | १६३
आत्मा से पृथक समझ कर उनके प्रति मोह - आसक्ति आदि से दूर रहना है । सामायिक पाठ में इसी आशय को अभिव्यक्त किया गया है
शरीरत: कर्तुं मनन्तशक्तिम्, विभिन्नमात्मानमपास्तदोषम
जिनेन्द्र ! कोषादिव खड्गयष्टिम, तव प्रसादेन प्रमाऽस्तु शक्ति: ॥1
समगुणसम्पन्न साधक जिनेन्द्र भगवान् से प्रार्थना करता है कि हे वीतराग प्रभो ! आपकी कृपा से मेरे में ऐसी शक्ति हो जाए कि जिस प्रकार प्रकार तलवार से म्यान अलग हो जाता है, उसी प्रकार दोष रहित अनन्त शक्तिमान शुद्ध आत्मा को शरीर से पृथक् कर सकूँ ।
निष्कर्ष यह है कि शरीर और शरीर से सम्बन्धित वस्तुओं के प्रति 'मैं' और 'मेरे' की भावना को छोड़ना ही शरीर से आत्मा को पृथक् करने का भेदविज्ञान है ।
आध्यात्मिक वैषम्य वहीं होता है, जहाँ शरीर और उसके अंगोपांगों मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, हाथ-पैर आदि को ही आत्मा समझ लिया जाता है, उन्हीं पर मोह, ममत्व करके अशुभ कर्मबन्ध किया जाता है । सम्यग्दृष्टि भी शरीर तथा अपने कुटुम्ब, परिवार, समाज, सम्प्रदाय, जाति आदि के साथ रहता है, वह उनसे सम्बन्धित सभी आवश्यक कर्त्तव्यों और दायित्वों का पालन करता है, शरीर को टिकाने और जीवन की रक्षा के लिए अन्न, वस्त्र, मकान, धन आदि सभी आवश्यक वस्तुओं का उपार्जन करता है, किन्तु वह इन सबके प्रति निर्लिप्त, अनासक्त, तथा अन्धस्वार्थ और अतिमोह दूर रहता है । बृहदालोयणा में एक रूपक द्वारा इसे समझाया गया है
से
१ सामायिक पाठ,
1
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भावार्थ स्पष्ट है । जिस प्रकार धायमाता दूसरे के बालकों को खिलाती - पिलाती है, लाड़-प्यार करती है, पालती - पोसती भी है, किन्तु अन्तर् से वह यही समझती है कि यह बालक मेरा नहीं है, इसी प्रकार समदृष्टि
जे जे समदृष्टि जीवड़ा करे कुटुम्ब प्रतिपाल | अन्तरथो न्यारो रहै ज्यों धाय खिलावे बाल ॥
श्लोक २
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