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उत्कृष्ट आस्था के मूलमंत्र | ८७
हैं। उसके शाखा, पत्र सदाचार, कर्तव्य-धर्म का पालन, पापभीरुता, कर्मबन्ध से मुक्ति आदि हैं । जड़ के उखाड़ने से सभी उखड़ जाएंगे । मनुष्य आस्थाहीन होकर स्वार्थ प्रधान बन जाता है, दूसरों की सुख-सुविधा, न्याय नीति-कर्तव्य एवं परमार्थ की बात नहीं सोचता । अतः अनास्था मनुष्य को प्रेत-पिशाच के समान क्रूर बना दे, इसमें कोई सन्देह नहीं।
आस्थाएं विकृत होने पर आस्थाएँ जब विकृत हो जाती हैं, तो मनुष्य न तो आत्मा-परमात्मा को मानता है, न ही धर्म, नीति, अध्यात्म, कर्तव्य, आदर्श एवं धर्मगुरु की परवाह करता है। उसकी गतिविधियाँ अवांछनीय होती चली जाती हैं। उसे न तो समाज का, न ही दुर्गति या दण्ड का भय रहता है । उसमें उच्छृखलता, स्वच्छन्दता. स्वेच्छाचारिता एवं उद्दण्डता प्रविष्ट हो जाती हैं। इस प्रकार की विकृत आस्थाएँ एक प्रकार से अनास्था ही हैं, जो श्रेयस्करी आस्थाओं को अन्तरात्मा से दूर धकेल देती हैं। जिससे व्यक्ति असंयमी एवं उद्धत आचरण वाला बन जाता है। उद्धत आचरण एवं असंयम का फल ही शारीरिक एवं मानसिक रोगों के रूप में सामने आता है। ऐसे लोग ऐसी विषम परिस्थितियों से घिर जाते हैं, जिनमें वे पद-पद पर स्वयं को असफल, उपेक्षित, उद्विग्न, तिरस्कृत, दुर्भाग्यग्रस्त, खिन्न, नीरस, एवं भारभूत अनुभव करने लगते हैं। यहाँ तक कि कई लोग तो आत्महत्या तक कर बैठते हैं, जीते भी रहते हैं तो किसी तरह सांसों का बोझ वहन करते हैं। जीवन के अन्यान्य क्षेत्रों में भी विकृत आस्थाओं को ढोने वाले व्यक्तियों को सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक एवं आन्तरिक नाना कठिनइयाँ एवं हानियाँ उठानी पड़ती हैं ।
रोगों के भी दो वर्ग हैं- शारीरिक और मानसिक । जिन्हें क्रमशः व्याधि और आधि कहते हैं । ज्वर, खाँसी, दमा, अपच, मधुमेह, रक्तचाप आदि शारीरिक रोगों में और उन्माद, सनक, मूर्खता, विस्मृति, तनाव, उलझन, पागलपन आदि की मानसिक रोगों में गणना होती है। आस्थाओं के उद्गम केन्द्र को व्यवस्थित और परिष्कृत न करने से न तो शारीरिक रोगों से छुटकारा मिल सकता है और न ही मानसिक उद्विग्नता एवं असंतुलन से । ऐसे अनास्थावान व्यक्तियों को आन्तरिक निराशा हर घड़ी सताती रहती है। वे आन्तरिक उद्वगों की आग में जलते रहते हैं। बाहरी ठाट बाट और मौज शौक के ऊपरी मन बहलाव से आन्तरिक समाधि प्राप्त नहीं होती। नशीली चीजें खा-पीकर वे अपने गम को गलत करते रहते
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