________________
१२८ | सद्धा परम दुल्लहा ढांचे में ही परिपूर्ण होती है। यही आत्मार्थी एवं मुमुक्षु साधक के लिए सर्वोत्कृष्ट सुलभ मार्ग है। विवशतापूर्वक समर्पण और स्वेच्छा स्वीकृत समर्पण
एक होता है विवशतावश समर्पण, और दूसरा होता है-स्वेच्छा से स्वीकृत समर्पण ! युद्ध में जब शत्रपक्ष की हार होने लगती है, उसके अधिकतम सैनिक हताहत हो जाते हैं, तब वह विवश होकर अपने विपक्षी के समक्ष अपने आपको समर्पण (Surrender) कर देता है, हथियार डाल देता है । अथवा मुकदमेवाजी में हार जाने की नौबत आ जाती है, अथवा विपक्ष का पलड़ा भारी होता मालूम होता है तो पराजय की संभावना वाला पक्ष लाचार होकर परस्पर समझौता करने लगता है। वह एक प्रकार से स्वयं विपक्ष के समक्ष विवशतावश समर्पित हो जाता है। इसी प्रकार आध्यात्मिक जागत् में भी जब कोई व्यक्ति क्रोधादि कषायों, विषय-वासनाओं एवं अपने दुर्व्यसनों से पराजित हो जाता है, वे उस पर हावी हो जाते हैं, अथवा उन विकारों के समक्ष साधक टिक नहीं पाता, तब लाचार होकर वह स्वयं को उन्हें समर्पण कर देता है। परन्तु यह समर्पण विवशतापूर्वक समर्पण है, स्वेच्छाकृत नहीं। आध्यात्मिक जगत् में स्वेच्छापूर्वक समर्पण तभी कहलाता है, जब व्यक्ति मन में दृढ़ता एवं वीरता धारण करके साहसपूर्वक अपनी बुराइयों-विकारों एवं कषायों आदि को स्वतः प्रेरणा से या अन्तःस्फुरणा से वीतराग परमात्मा, अथवा महान् के प्रति, या उत्कृष्टता के प्रति विसर्जित कर देता है। जैनधर्म की प्रत्येक आध्यात्मिक साधना के साथ इसी भाव को अभिव्यक्त करने वाला वाच्य आता है
'अप्पाणं वोसिरामि" 'प्रभो ! मैं अपने आपका व्युत्सर्ग करता हूँ।'
इसका भावार्थ है--आत्मा की पापकर्मकारी-पापविकारों--पाप कर्मों से दुषित अतीत अवस्था का त्याग करता हैं । अर्थात्-आत्मा पर पूर्व में लगी हुई कषाय, रागद्वेष, कामवासना आदि विकृतियाँ हैं, उन्हें प्रभु चरणों में-अथवा उत्कृष्टता-महानता के प्रति विसर्जन-त्याग करता है। समर्पण-साधना : ध्येय के प्रति एकनिष्ठा
समर्पण साधना में जब अपने अहंत्व-ममत्व का विसर्जन प्रभु के
१ आवश्यक सूत्र : सामायिक ग्रहण पाठ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org